Monday, April 24, 2017

बहु बहु बिम्ब बनाईं

बहु बहु बिम्ब बनाईं
मारग कठिन चलैं बहुताई,
धूर पंकमय स्वेद बहाई।
वै प्रकटे इक वीथी आई, 
झाँकि-ताकि लागे पिछुआई।।
घेरि घेरि फिर राह छेंकाई,
ठहि ठहि ठहरि हीय अकुलाई।
पइठे जस मोहन मधुराई,
कुतरैं उर चित-चोर के नाईं।।
आहट पाय आस हलकाई,
लहकि लपकि पट खोलहिं जाई।
हरसैं हरष सन्देसा पाई,
जस बगिया में फूल खिलाई।।
शीतल मन्द वात लहराई,
बरखा मनो पहिल फुहराई।
जस मयूर नाचै अमराई,
नव पल्लव तरुवन अंकुराई।।
मम गोपन जानै कोइ कोई,
कटु-मीठो रस भावै सोई।
मूंदे पलक परम सुख पाईं
मोदित मन मंगल धुन गाईं।।
लखि पाती समझे सहजाई,
जेहि बिधि वै संदेस पठाई,
आखर भखैं अंजोर मति होई,
तीख बुद्धि संदीपन सोई।।
चाहत चित अधिकै अधिकाई
होइहैं कस यहु मरम बझाई।
लहि-लहि यहु लालसा लसाई,
केहु बिधि छवि अवलोकैं ताईं।।
सांवर, गोर, कितौ कंचनाई,
कौन बरन मनभावन होई।
सम सुतार सुन्दर सुघराई,
थूल कृशी, कस काया पाई।।
बिन देखे बोले बतियाए, उन्ह अस लगन लगाई।
अंग-अंग मुख नैन अभासी, बहु बहु बिम्ब बनाई।।
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