Saturday, November 9, 2013

थोडा ही सफ़र बाक़ी है

थोडा ही सफ़र बाक़ी है

November 9, 2013 at 6:07pm

१.
हम दूर हुए लेकिन, हिचकी तो अभी आती है,
कुछ आदतें पुरानी, यूं ही न छूट पाती हैं।




कुछ खुशबुएं हैं ऎसी, हवाओं में बसी आती हैं,
साँसों में भिनी रहतीं, ज़ेहन में भरी जाती हैं।




कुछ लीक पड़ीं गहरी, ज्यों संग पे उकेरी हैं,
वो रास्तों की घुमरी, माथे में घूम जाती हैं।   


कुछ गुफ्तुगू हैं ऎसी, हौले से गुनगुनाती हैं,
सोते से आ जगाती, दस्तक सी बजाती हैं।  




अक्सर ही तेरी यारी, शिद्दत से उभर आती है. 
जब बैठते अकेले, साए सी चली आती है।


ये वो 'घड़ी' तुम्हारी, ये भेंट गज़ब ढाती है,  
जो बीत गई उनकी, यादों की गहर लाती है।




ये प्यालियाँ रुपहली, भावों भरी सजा दी हैं, 
खीर खाने को यहाँ, दिल से सटा रख्खी हैं। 




ये चादरें उजाली, कांधे पे ला ओढ़ा दी हैं,
ज़ज़बात में सहेजी, ला के गले सजा दी हैं।




चादर बुनी कबीरी, तुमने मुझे नवाज़ी है,
कैसे निभेगी इसकी? ये फिक्र बड़ी भारी है।



१०
शाम ढल रही अब, उस पार वो किनारी है,
गोधूलि छा रही अब, गीता हमें थमा दी है !




११.
अगले गए हैं जिस पथ, ये उसकी बानगी है,  
ये है मुझे तसल्ली, थोडा ही सफ़र बाक़ी है।

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