Tuesday, March 27, 2012

कहाँ बाज़ी बिछाई है


कहाँ बाज़ी बिछाई है

राकेश तिवारी 

बहुत गहरे थमा था जल, ये फिर से थरथराया है,
मगन था मौन में डूबा हुआ, मन तमतमाया है. 

जमे उस रेत के टीले ने, फिर अंधड़ उठाया है,
परिंदा पर पटकता फिर, बवंडर में भटकता है. 

बहुत अरसे से कोशिश की, यहाँ हमने लिहाजन है. 
मगर अब ये सबर हमसे, यहाँ आ कर फिसलता है.  

ये लहरा बाँध पर आ कर, किनारे सिर पटकता है 
कि जैसे, तोड़ कर तट, बाढ़ में दरया निकलता है.

बखूबी मुझको मालुम  है,  बहुत गहरी ये वादी है,
मगर इसमें उतरने की, हमारी अबकी बारी है. 

सिमट कर एक कोने में, बचाया अपना दामन है,
मगर इस बार ज़ालिम ने, बड़ा खेदा लगाया है.   

करें क्या हम मगर ऎसी, हमारी भी विवशता है,
अड़ी दीवार पीछे अब, कहाँ तक अब सिमटना है.

चढी धारा में अपनी नाव, अब हमने उतारी है,
चढ़ेगी या-कि डूबेगी, ख़ुदा की जो भी मरज़ी है. 

चलो देखें ये रब ने अब, कहाँ बाज़ी बिछाई है,
नियति ने अब कहाँ, कैसी मेरी कीली घुमाई है. 
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२७.०३.२०१२ 

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