ये तारीखें भी गजब करती है,
फिर से आकर वहीं ठहरती हैं।
फिर से आकर वहीं ठहरती हैं।
उन्हीं लम्हों में फिर जिलाती हैं,
उन्हीं लफ़्ज़ों में बात करती हैं।
उन्हीं जज़बातों को फिर जगाती हैं,
नरम सोतों सा फिर बहाती हैं।
कुरेद कर फिर उधेड़ जाती हैं,
किसी चरखी सी घूम आती हैं !
मुंदी पलकों में बसी बरसों से,
घुमड़ आँखों में डुब-डुबाती हैं।
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