Sunday, May 7, 2023

 'केवटी कुंड' से 'चित्रकूट' (7) : 21-26 Oct 1976  (समापन सर्ग)


"शैल-चित्र-कूटः" (Hill comprising Rock Paintings)  

'हम तो कछू कही नाय, 

'जाना कहाँ ! कहाँ रुकना है !!' ऊपर वाले पर छोड़ कर निकल पड़ने की मस्ती और चलते ही चले जाने की धुन नयी उमर में बहुत मन भाती है। आगे पैंतालीस बरस के अनुभव से समझ में आए ठहर-ठहर कर चलने के लाभ। पहले से घूमने के इलाके तय करके थोड़ी तैयारी थोड़ी जानकारी करके निकलने पर मस्ती के साथ ज्ञान का तड़का ज्यादा सुस्वादु हो जाता है। कुछ दिन और हाथ में लेकर थोड़ा आराम करते हुए चले होते तब केवटी से चित्रकूट तक तो और भी बहुत कुछ देख-जान लिया होता। देर से सही, जो तब नहीं जान पाए उसे भी टटोलते हुए कई नए आयाम समझ में आये यह विवरण लिखते समय। 

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण पढ़ते हुए पता चला कि अपने वनवास-काल में राम-लक्षमण सीता जी यूं ही अपने मन से  'शरभङ्ग आश्रम' नहीं चले गए थे। अयोध्या से चल कर ग्रामों-वनों के मध्य से चलते हुए वे गंगा-यमुना संगम के निकट स्थित 'भारद्वाज आश्रम' पहुंचे।  वहां उन्होंने भारद्वाज ऋषि से निवेदन किया -  'हे भगवन ! मेरे रहने के लिये कोई ऐसा एकान्त और उत्तम स्थान आश्रम के लिये बतला दीजियेजहाँ वैदेही का मन लगे और सुख पूर्वक रह सके।' 

महर्षि भारद्वाज ने उन्हें बतया - 'यहाँ से दस कोस पर तुम्हारे रहने योग्य एक पहाड़ है, जो महर्षियों से सेवित होने के कारण पवित्र है और उसके चारों ओर नयनाभिराम दृश्य हैं। उस पर बहुत से लंगूर विचरते हैं।  वानर और रीछ भी निवास करते हैं। वह पर्वत चित्रकूट के नाम से विख्यात है और गंधमादन के सामान मनोहर है।  तुम मधुर फल-मूल से संपन्न चित्रकूट पर्वत पर जाओ।  वह सुविख्यात चित्रकूट पर्वत नाना प्रकार के वृक्षों से हरा भरा है। मयूरों के कलरवों से वह और भी रमणीय जान पड़ता है।  अनेकानेक जलस्रोत, पर्वतशिखर, गुफा, कन्दरा और झरने भी तुम्हें देखने में आएँगे। विविध प्रकार के मूल, फल और स्वच्छ जल संपन्न चित्रकूट पर्वत ने, कुबेर की अलकापुरी, इंद्र की अमरावती और उत्तर कुरुदेश को रमणीयता में मात कर दिया है।'   

युवावस्था की घूमने की तरंग में निकलने से पहले यह सब पढ़ कर निकले होते तो गूगल मैप पर उड़ती नज़र डालते ही दिखने वाले टिकरिया, तुलसी, तागी, शरभंग के मनोरम झरने जरूर देखे होते। तबसे पैंतालीस साल से ऊपर निकल जाने के बाद भी वहां विचरण का अगला अवसर हाथ नहीं आया। पता नहीं अब कभी आएगा भी या नहीं। 

बाद के दिनों में कहीं जाने पर जो प्रश्न सबसे पहले मन में सहज ही आ जाता है वो है उस स्थान के नाम के अर्थ और नामकरण के कारणों के विषय में। किन्तु उस समय ये बात दिमाग में आयी ही नहीं कि 'चित्रकूट'  के संदर्भ में। तब आगत नियति का कोई आभास नहीं हो सका कि आगे 'कस कूट कूट कत कत बहकेंगे बरसों बरस' ऐसे चित्रों वाले कूटों (पर्वतों) में देश-विदेश तक। इस ओर ध्यान गया मीरजापुर जिले में पुरातात्विक सर्वेक्षणों में मिले शैलचित्रों पर शोध करने की अवधि में। तब समझ में आया यह नाम धराया होगा उन पर्वतों में स्थान-स्थान पर चित्रित शैल-चित्रों को ध्यान में रख कर (चित्र+कूट
(पर्वत) = चित्रकूट)। ये नाम आज से लगभग दो-ढाई हजार वर्ष से भी पहले ही आमजन में भली भांति प्रचलित हो गया होगा। इस तथ्य से सुविज्ञ महर्षि वाल्मीकि ने स्पष्ट रूप से इस पर्वत को शैल-चित्रों से युक्त पर्वत - "शैलचित्रकूटः" - बताया है। उनके बाद कालिदास ने 'रघुवंश' और बाबा तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' में भी 'चित्रकूट' नामक पर्वत का उल्लेख किया है। 

दो दशक बाद बांदा में तैनात एक जिज्ञासु पुलिस अधिकारी* ने चित्रकूट पर्वत-श्रेणियों में स्थित चार सौ से अधिक चित्रित-शैलाश्रयों की सूची प्रकाशित करा कर हमारी उपर्युक्त धारणा पर पक्की मुहर लगा दी। धारकूँड़ी, शरभङ्ग आश्रम, टिकरिया सहित जहाँ-जहाँ से होकर हम उस यात्रा में चले सभी जगह ऐसे चित्र मिले जिन्हें हम नहीं देख सके थे। इनमें से अनेक चित्रित शैलाश्रय स्थल - यथा हनुमान धारा, अनसूया अरी, शरभङ्ग नाला, दशरथ घाटी, आदि - रामायण में वर्णित राम-कथा से सम्बद्ध किये जाते रहे हैं।  ब्रिटिश ज़माने में शुरू हुई ऐसे 'शैल-चित्रों' की 'रॉक पेंटिंग्स' की 'स्टडीज', प्रकाशन और संरक्षण का चलन उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है। मध्य प्रदेश में स्थित भीमबेटका के चित्रित शैलाश्रय विश्व धरोहर सूची में सम्मिलित होकर पर्यटकों के आकर्षण के केंद्र बन गए हैं। यूट्यूब-चैनल और 'सोशल मीडिया' की ज़ूम-धूम के साथ इनके बारे में सूचनाओं, घूमने-घुमाने के आवाहन और इनके संरक्षण की गोहार मची हुई है। 

रमणीय मनोरम प्राकृतिक पृष्ठभूमि में स्थित प्राचीन आश्रमों एवं चित्रकूट जैसे पर्वतों में तीर्थाटन, अटन, पर्यटन, देशाटन, रमण के साथ उनकी शुचिता संरक्षित रखने का संतुलन साधना आसान नहीं किन्तु असाध्य भी नहीं। सड़क, होटल, आवागमन की अधुनातन सुविधाओं के अंधाधुंध प्राविधान एक दिन इनका मूल स्वरुप हर लेंगे। मूलतः आर्थिक लाभ के लिए आश्रमों, तीर्थ स्थानों से भरपूर ऐसे क्षेत्रों के 'विकास' का मूलाधार उसकी मौलिकता में ही निहित होना चाहिए। इस सन्दर्भ में अत्यावश्यक होंगी - वाल्मीकीय रामायण से लगायत रामचरितमानस तक में उल्लिखित, और पैतालीस साल पहले मेरे देखे इस भूभाग पर आच्छादित मूल-फल-फूल-वृक्ष, पशु-पक्षियों, स्वच्छ धाराओं, चौरस शिलाओं पर झरते झरनों वाले परिदृश्य के साथ आहार-आचार-विचार वाले दृष्टिकोण के अनुसार विहार, मेले आदि की संकल्पनाएं, अवधारणाएं, भावी 'विज़न योजनाएं'। 

शैलचित्रों के दर्शन परिदर्शन के साथ यह समझ लेना अनिवार्य होगा कि ये पुराकाल से ही प्रकृति-संरक्षित प्राचीनतम पवित्र अनुष्ठानिक कला-दीर्घाएं हैं।  उत्सुकतावश इन्हें देखने जाने वाले पर्यटक जाने-अनजाने कैंप फायर, मौज मस्ती, खान-पान और इन्हें छूकर देखने सेल्फी-वेल्फी के चक्कर में इन धरोहरों को नष्ट करने के प्रमुख कारक बन सकते हैं।  डर लगता है, चारों ओर से हो रही इन तूफानी बौछारों में कहीं हजारों बरस से प्रकृतया संरक्षित ये चित्र धुल-बह ही न जाएं !!     

विराध-वध प्रसंग में निहित एक बात हम तब समझ ही नहीं सकते थे। अब समझ में आया वाल्मीकीय रामायण का वह अंश पढ़ने पर, इसलिए क्योंकि इस बीच पुरातत्त्व का विद्यार्थी होने के नाते इसे समझने की समझ आ सकी। शरभङ्ग ऋषि के आश्रम में जाने का सुझाव देते हुए 'विराध राक्षस' का यह कहना ध्यान देने योग्य है - 'हे राम ! आप मुझे गड्ढे में डाल कुशल पूर्वक चले जाइये।  मरे हुए राक्षसों को जमीन में गाड़ना, यह प्राचीन प्रथा है। क्योँकि जो मरे हुए राक्षस जमीन में गाड़ दिये जाते हैं, उनको सनातन लोक प्राप्त होते हैं।' यह अंश पढ़ते ही दिमाग में कौंधा कहीं वाल्मीकि जी ने विंध्य क्षेत्र के निवासियों में प्रचलित उस परम्परा का उल्लेख तो नहीं किया है जिसे पुराविदों में महाश्म-परंपरा (मेगालिथिक ट्रेडीशन) कहा जाता है !!!! 

'लास्ट बट नाट द लीस्ट' की तरह एक बात और, 'पातिव्रत्य धर्म' की महिमा जैसी 'अत्रि ऋषि' की पत्नी 'सती अनुसूया माता' ने सीता जी को बताई# - 'हे सीते ! यह बड़े सौभाग्य की बात है कि, तुम पातिव्रत धर्म की ओर भलीभांति ध्यान देती हो। --------- पति वन में रहे या नगर में रहे, पति पापी हो अथवा पुण्यात्मा हो; जो स्त्री अपने पति से प्रीति रखती है, वह उत्तमोत्तम लोक को प्राप्त होती है। भले ही पति क्रूर स्वाभाव का हो, कामी हो, धनहीन हो, किन्तु श्रेष्ठ स्वभाव वाली स्त्रियों के लिये उनका पति देवता के तुल्य है अथवा पति ही उनका परम देवता है।'  (इस 'डिस्क्लेमर' के साथ कि - 'हम तो कछू कही नाय, जो कछु कही भी बो तो बाल्मीकी जी की लिखी, अनुसूया माता की कही। आज काल्ह के दिनन में जाको जैसी समझ में आए बाकी मति जाने। ) 

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# वाल्मीकि रामायण, अयोध्याकाण्ड, चतुःपञ्चाशः सर्ग, श्लोक ४०.  
Vijay Kumar 1996. Painted Rock Shelters of Patha, Pragdhara, No 6: pp. 21-31.  

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