Saturday, January 6, 2018

खटर खट्ट खट्ट, खटर खट्ट खट्ट

Safar Ek Dongi Me Dagmag
Published by Rakesh Tewari10 hrs
खटर खट्ट खट्ट, खटर खट्ट खट्ट

खटर खट्ट खट्ट, खटर खट्ट खट्ट
लकड़ी के डाँड़े फौलादी कड़ों से लड़ते रहे।
और डोंगी और मैं, 
बीहड़ घाटी के कोने कोने में झाँक कर,
खारों-गारों-पत्थरों, घाटों और गावों,
मोड़ों और मन्दिरों,
झाड़ी-डगर-खेत मैदानों में,
पशु-परिन्दे-इंसानों में,
सौन्दर्य निरखते रहे।
खटर खट्ट खट्ट, खटर खट्ट खट्ट
लकड़ी के डाँड़े फौलादी कड़ों से लड़ते रहे।
मयूर और हरिण,
नाव-नावरिया-राही,
बोझा लादे ऊंटों की कतार,
उनकी डोलती आकर्षक छाया,
कूबड़ पर लचकते सवार,
कीकड़ के गाछ, खेड़े पर सराय,
कपड़े धोती औरत,
छलांग लगाते मोढ़े,
गोरू और ग्वाले,
मिलते गए, छूटते गए,
खटर खट्ट खट्ट, खटर खट्ट खट्ट
लकड़ी के डाँड़े फौलादी कड़ों से लड़ते रहे।
क्रेंक क्रेंक, क्रेंक क्रेंक,
कौन कौन ? कौन कौन ?
पत्थरों पर बैठे परिन्दे, उड़ते
सर पर मंडराते,
यही प्रश्न दोहराते रहे,
टिटिर टी टीं --- टिटिर टी टीं,
पूछती रही टिटिहरी,
कौन हो तुम ? कहाँ जाते हो ?
मलाहों और तटवासी ग्रामीणों की टेर,
कहाँ की डोंगी है ? कहाँ जाती है ?
स्वरारोह उभरते रहे, उतरते रहे,
खटर खट्ट खट्ट, खटर खट्ट खट्ट
लकड़ी के डाँड़े फौलादी कड़ों से लड़ते रहे।
हमारी और से डाँड़े बोले,
डुडुब डुब छप, डुडुब डुब छप.
जहाँ जाती है यह धारा,
वहीँ जाते हैं हम,
अटकता भटकता, कूल कगारों से उलझता,
कंकड़ पत्थर से बचता बचाता,
चुपके से गोपन संवाद सुनाता,
अनवरत चलता, बराबर साथ निभाता,
डांडों के परखचे उधड़ते रहे,
कड़ों के घेरे चचमाते रहे,
खटर खट्ट खट्ट, खटर खट्ट खट्ट
लकड़ी के डाँड़े फौलादी कड़ों से लड़ते रहे।
घाट पर घाट गुज़रते रहे,
क्रेंक क्रेंक, क्रेंक क्रेंक,
टिटिर टी टीं --- टिटिर टी टीं,
मलाहों की टेर,
नए दृश्यों, वैसी ही आवाज़ों की पुनरावृत्ति,
और, रोज़ एक अदना नाविक,
दुखती पिण्डलियों, भर चुकी आँखों,
टीसती अँगुलियों, और
धूप में जले झँवाए चेहरे की
पीड़ा भुला कर,
ताप लूह और लहरों की अदावत
में विस्मृत, चलते रहे,
खटर खट्ट खट्ट, खटर खट्ट खट्ट
लकड़ी के डाँड़े फौलादी कड़ों से लड़ते रहे।
गुलाबी शामों और बहुरंगी अम्बर की
जादुई छटा में बंधे,
लंगर डाले नाव पर जमे,
चहुँ और बिछी मोहक सुषमा को
एक टक निहारते रहे,
अँधियारा घिरने तक,
खेड़ों पर अटके गाँवों के आशंकित वासी,
अज़नबी आँखों से अंदाज़ते रहे,
और, कल कल छलल छल,
चम्बल के उजले पारदर्शी पानी की,
जलतरंगें सुनते रहे।
खटर खट्ट खट्ट, खटर खट्ट खट्ट
लकड़ी के डाँड़े फौलादी कड़ों से लड़ते रहे।
-----------
१९७६ में नाव यात्रा के दरमियान चम्बल-यमुना संगम पर यह कविता लिखी थी। प्रकाशक की अपेक्षानुसार विवरण को थोड़ा छोटा करने हेतु इसे पांडुलिपि में से हटा दिया था। आज ललित शर्मा जी की " #यात्रा_कथा#भारतीय_रेल #जनरल_बोगी - 15 में खटर खटर खट खटर खटर खट, खट खट खट खट खट खट खट खटर खट खट खट खट……" पढ़ कर साझा करने का मन बन गया। धन्यवाद Lalit Sharma जी।

2 comments:

  1. सफर का हाल, नाविक बेहाल, फिर आयी कविता,शुरू हुआ रसपान

    ReplyDelete