Wednesday, March 25, 2015

कुस्तुनतुनिया से आगे: २८

कोई रिश्ता है क्या: ८ मई २०१४

इतना कुछ है अंकारा में कि ठीक से देखने-सुनने-समझने में महीनों लग जाएं लेकिन हमारे पास था कुल आधा दिन और उतने में ही जितना देख पाते देखना था। इसी लिए हमारे मेज़बानों ने वक्त का ख्याल रखते हुए  हमें दिखाने के लिए तीन ही मुकाम चुने।



सबसे पहले हमारा जत्था चला ऊंची पहाड़ी पर तामीर कोट पर लहराते लाल परचम की ओर। इसके बनने की सही सही तारीख का पता नहीं।  रोमन और बाद के राजाओं हुक्मरानों के बाद  ११०१ में इस पर काबिज़ हुए सेल्जुक तुर्क। ऑटोमन ज़माने में १८३२ में इब्राहिम पाशा ने बड़े पैमाने पर इसकी मरम्मत करायी। पुराना अंकारा बाहरी किलेबंदी के अंदर बसा है। अंदरुनी किला ४३ वर्ग  किलोमीटर में फैला है ।







हमने किले के आस-पास की एक झलक पाने का मौक़ा पाया। नयी बनी कालोनी, पीली टैक्सियों और सफ़ेद कारों की कतार, पार्किंग, दूकानों की खपरैली छत वाली दुकानों के सामने तक सजे बिक्री वाले सामान, गाहकों की इन्तिज़ार में इत्मीनान से बैठे  दूकानदार, किले  दीवार में लगी पुरानी इमारतों के खंड ठीक उसी तरह जैसे हमने हिन्द के किलों में अक्सर देखे हैं।  किले के दरवाज़े के ऊपर से दूर दूर तक फैले नए पुराने शहर का फैलाव देखा, नयी-पुरानी इमारतें, नीले गुंबदों वाली शानदार चार मिनारी मस्जिद, और लाल परचम लहराता देखा, किले के अंदर की कुछ गलियां देखीं। फिर चल पड़े आगस्टस/ रोमन मंदिर की ओर।





पहाड़ी ढलान की सड़क पर रुक कर नीचे बस अड्डे की रौनक देखते देखते ऊपर से एक के पीछे सरपट भागती आयी कारें हमारे पास ही सड़क रगड़ती रुक गईं।  अगली कार से उतरे एक-एक  पिस्तौल वालों ने पिछली कार से दो घबराई हुई सवारियों को  खींच कर निकाला, उनकी कनपटी पर पिस्तौल सटाई और उनके हाथ पीठ के पीछे बंधवा दिए। आस-पास के माहौल में सनसनी उतर आई।  पता चला सादी वर्दी में आए पुलिस वालों ने भाग रहे मुल्ज़िम पकडे हैं।

आज से २०२५ बरस पहले रोमन राजा आगस्तस की फतह के बाद रोमन राज के गलाटिआ नाम के सूबे की कैपिटल के तौर पर अंकारा शहर लम्बे वक्त तक एक बड़ा कामर्शियल सेंटर बना रहा। उसी ज़माने में यहां बना आगस्टस और रोम के मंदिर में लगे प्रस्तर-पट्टों पर कुरेदे गए लेख आगस्टस के कारनामों का ज़िक्र करते हैं।







आगस्टस और रोम मंदिर से सटा कर चार सौ बरस से कुछ पहले लाल ईंटों से तामीर करायी गयी खूबसूरत मीनार वाली हाजी बैरम मस्जिद पर इबादत करने वालों से ज़्यादा सैलानियों का रेला लगा रहता है। एक मशहूर तुर्की कवि, सूफी और बैरामी सूफी फ़िरक़े की बुनियाद डालने वाले हाजी बैरम वली की कबर भी मस्जिद के बगल में ही बनी है।

एक चक्कर 'म्यूजियम ऑफ़ अनातोलियन सिविलाइज़ेशन का भी लगवाया गया, चक्कर भी क्या बस यूं समझिए ज़रा सा परदा उठाया और जब तक नज़र उठे फिर से पर्दानशीं। पत्थर युग से शुरू हुई संगतराशी के एक से बढ़ कर एक नमूने, अक्खा पत्थर युग के औज़ार-हथियार, फिर सधे हाथों गढ़े गए बुत - बाएं हाथ पर बाज़ बिठाए राजा, रथ पर सवार योद्धा, शेर, पंख वाले अनोखे जीव, धातु के सामान, जाने क्या क्या, पूरी तवारीख की नुमाइंदगी करते बेहतरीन नमूने। कहाँ तक सराहते और जज़्ब करते।

बाहर टहलते हुए बगीचे में बेतरतीब धरे दो प्रदर्शों को देखा तो बस देखता ही रह गया, पहले पर निगाह पड़ते ही अपने यहां मिलने वाले कीर्त्ति-स्तम्भ या वीर-स्तम्भ और दूसरे को देख कर अनायास ही शिवलिंग याद आये, देर तक गुनता रहा कि इनका अपने यहां की ऐसी कृतियों से कोई रिश्ता हो सकता है क्या।





रात के खाने का इंतिज़ाम हुआ अंकारा पैलेस में - महामहिम उमर सेलिक, वज़ीर ए तहज़ीब और सैर-व-सयाहट की ओर से। उनीस सौ अट्ठाइस में बन कर तैयार हुई इस इमारत को आज की शक्ल मिली १९८३ में। हमारे रिसेप्शन और खान पान के लिए चुने गए शानदार हाल की सजावट के क्या कहने, लकड़ी की फर्श पर फूल पत्तियों से सजे मोटे कालीन, वैसी ही डिज़ाइनों से सजी मेहराबें और सीलिंग के फानूस, सफेद मेज़पोश वाली गोल टेबल के चारों ओर लाल कुर्सियां।







हमारे साथ आ जमे बाल्कन इलाके के एक खोजी स्टूडेंट, जापानी और मेक्सिकन प्रोफेसर, और फिर आए लम्बे छरहरे मुराद अपनी शरमाती मुस्कुराती माशूका के साथ। आखिर खुल ही गया इश्क का यह पन्ना भी।



डिनर का दस्तूर बड़ी नफासत से नपे तुले अंदाज़ और तहज़ीब से चला। शुरू में ख़ास लोगों ने तोहफों की रस्मी अदला बदला की और बारी बारी मोहब्बत के ज़ज़्बात भरे पैगाम ढाले, फिर लज़ीज़ खाने की तश्तरियां आती गईं. सब कुछ बड़ी खामोशी और तरतीब से चला।  
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बकिया आगे

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