Wednesday, March 2, 2011

अपने ही मन की कुछ परतें


अपने ही मन की कुछ परतें  


 राकेश तिवारी

 अपने ही मन की कुछ परतें कितनी अनजानी रहती हैं
अपने ही बारे में अपने को भरमाए रहती हैं. 

इनकी माया समझ ना आये नए रंग बिखराती हैं
अपने भीतर ही छुपे हुए अनजाने रूप दिखाती  हैं.

लगता है सब कुछ त्याग दिया, लालच मन में पनपाती हैं,
जिनको लगता है भुला दिया उनकी चाहत ले आती है.

जो बसे हुए दिल के करीब उनसे दूरी बनवाती हैं
जिनसे पूरी खुट्टी कर ली उनको करीब ले आती हैं.

जिनको कोसा पानी पी पी उनसे भी नेह कराती है,
मार गए निष्ठुर ठोकर, माला उनकी डोलवाती हैं.  

कोमल मन पत्थर कर देतीं, पाथर मोम बनाती हैं.
वीरों को हतप्रभ करतीं कायर को वीर बनाती हैं. 

महिमा मंडित राजाओं से सिंहासन छुड़वाती हैं
राज-पाट का मोह कटा कर वीतराग समझाती हैं.

जिनको दुश्मन समझा अपना उनको भी हृदय लगाती हैं,
जिनको शिला समझते थे उनको ही शीश नवांती हैं.

अपने ही मन की कुछ परतें कितनी अनजानी रहती हैं 
अपने ही बारे में अपने को भरमाए रहती हैं.
--------------

No comments:

Post a Comment