Thursday, October 25, 2018

'ट्रैफिक में।'

'ट्रैफिक में।' 

हम सब 
आदी हो चुके हैं 
दो राहों, तिराहों,
चौराहों की 
धकापेल में। 
  
अपनी ही,
रौ में, 
उलझे हुए,
अपने अपने 
मतों में।  

कोई नियम नहीं 
मानता कोई, 
अड़े रहते हैं 
बस अपने ही
सच में।  

कोई बैक गियर 
नहीं लगाता, 
और न किसी को
लगाने देता है, 
लौटने में। 

रास्ता देने, 
दिलाने में, 
यकीन नहीं, 
सुलह, समझौते की  
राह में।  

हम चलते हैं 
मगरूर, बेलगाम, 
दाएं बाएं
किसी भी,
 साइड में।  

लगा रहे जाम, 
खड़े रहे सब, 
यथावत,
कोई बढ़ने न पाए, 
किसी राह में।  

कहते हैं 
जहाँ से निकल पाओ 
निकल जाओ, 
यहाँ ऐसा ही 
चलता है, सब
अव्यस्था में।  

सभी दिशाओं में,
चलते हैं लोग, 
सकते में डरते,
डराते, थमते 
अँधेरे में।  

गाँठ खोलने की 
नहीं सोचते,
माहिर हैं, 
और गहरे, 
गांठियाने में।  

फिर भी,
हम सबके सब,
बढ़ते जाते है,
ठसमठस, 
ट्रैफिक में। 

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Monday, October 22, 2018

'निराली दादी अम्माँ : कोटिया/ बस्ती वाली'

'निराली दादी अम्माँ : कोटिया/ बस्ती वाली' 

एक अत्यंत सादे समारोह में चर्चा हुई, उनके असाधारण व्यक्तित्व की, गांधी शान्ति प्रतिष्ठान, दिल्ली के सभागार में, रविवारीय शान्त संध्या-काले, दिनाँक 14 अक्टूबर 2018 को, इस धरती पर उनके अवतरण के पूरे एक सौ सोलह बरस बाद। अवसर बना उन पर लिखी गयी पुस्तिका के लोकार्पण का।  

13 अक्टूबर1902 में मिर्ज़ापुर में जन्म पा कर दुर्गावती नाम पा कर उन्होंने अपने ज़माने की सोच, समझ और व्यवहार से बहुत बहुत आगे रहीं।पूर्वी उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के कोटिया ग्राम के मूल निवासी पण्डित चन्द्रबली त्रिपाठी से विवाह के उपरान्त मुख्यालय बस्ती  में रह कर उन्होंने वो कर दिखाया जो किसी 'ब्राह्मण' कुलवधू के लिए आज भी संभव नहीं। घर के 'उठाऊ इज़्ज़तघर' की सफाई करने वाले गोकुल नामक भंगी के गंभीर रूप से रुग्ण होने पर स्वयं भोजन और पथ्य ले कर दो मील पैदल चल कर लगभग पंद्रह दिन उसकी सेवा-सुश्रूषा करना; पड़ोस के नन्दौर गाँव के मौलवी हसन अली के घर आने पर उन्हें घर के बर्तनों में भोजन कराने तथा उनके बीमार होने पर अपने हाथों उनकी हर तरह से उनकी तीमारदारी, साफ़ सफाई और देखरेख; बिहार में आये 1934 के भीषण भूकम्प और 1943 में बंगाल के दुर्भिक्ष में अन्न-वस्त्र-धन जुटा कर भेजना; औपचारिक शिक्षा के बिना बांग्ला, पाली, ब्राह्मी में प्रवीणता, बौद्ध धर्म में गहरी अभिरुचि; लुम्बिनी, श्रावस्ती, सारनाथ, महादेवा और सिसवनिया जैसे प्राचीन ढूहों, टीलों, पुरास्थलों का भ्रमण अवगाहन; स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी; उनके व्यक्तित्व के विलक्षण पहलुओं के द्योतक हैं। इतना ही नहीं, अपने संकलन में से लखनऊ संग्रहालय को पुरावेष भेंट किए और बस्ती में संग्रहालय की स्थापना करायी।  कोपिया के प्राचीन टीले का निरीक्षण करके निष्कर्ष निकाला कि यहाँ शीशा गलाने के प्राचीन कालीन उद्योग रहे होंगे और सन 2004 के आस पास आलोक कुमार कानूनगो द्वारा कराए गए उत्खनन से उसकी पक्की तस्दीक हुई, समझती हैं। 14 अक्टूबर को लोकार्पित पुस्तिका में उनके सुपुत्र श्री चन्द्र भाल त्रिपाठी ने उनके कृतित्व और व्यक्तित्व को हम सबके लिए अभिलिखित कर दिया है।  इस पुस्तिका का लोकार्पण करने वाले डॉक्टर विश्वनाथ त्रिपाठी और चर्चा में भाग लेने वाले प्रोफेसर आनन्द कुमार, डॉक्टर सैयदा सैयदैन हमीद, श्री कुमार प्रशान्त, श्रद्धेय लामा लोपज़ंग और अपन ने उन पर अपने अपने विचार रखते हुए उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की।  

'दादी अम्माँ' की शख्शियत ऐसी अपनी रही कि जिसने 'वटवृक्ष के नीचे किसी और वृक्ष के न पनपने' और किसी स्त्री की पहचान उसके पिता, पति या पुत्र-पौत्रों की पहचान से जुडी होने' जैसी आम धारणाओं को अपने मामले में पूरी तरह झुठला दिया। वे केवल इसलिए नहीं जानी जाएंगी कि वे हिंदी के प्रकाण्ड पण्डित आचार्य राम चंद्र शुक्ल जी ज्येष्ठा पुत्री और तब के पूर्वांचल के जाने माने पण्डित चंद्र बली त्रिपाठी की धर्मपत्नी रहीं; ना ही इसलिए कि उन्होंने जन्म दिया सुविख्यात  चार-चार प्रतिभाशाली पुत्रों को (डॉक्टर चंद्रचूड़ मणि - बौद्ध विद्वान, श्री चंद्र मौलि मणि - प्रखर मेधा के धनी और रेलवे के उच्चाधिकारी, श्री चन्द्रभाल त्रिपाठी -  पिछली शती के पांचवें दशक के जाने माने छात्र नेता, लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष, चिंतक और मानव शास्त्री तथा श्री चंद्रधर त्रिपाठी - भारतीय प्रशानिक सेवा (आई ए एस), और ना तो इस कारण कि उनके पौत्रों ने महा निदेशक, राष्ट्रीय संग्रहालय, आई आई टी दिल्ली में गणित के प्रोफेसर अथवा दिल्ली हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता जैसे ऊंचे ऊंचे मुकाम हासिल किए। वे जानी जाती रहेंगी अपनी दुर्लभ प्रतिभा की बदौलत, माँ, अम्माँ, दादी अम्माँ के ममत्व भाव से कहीं ज्यादा करुणामूर्ति, विदुषी और क्रांतिकारी के रूप में। 

बस्ती वालों को तो इस बात का गौरव भान रहेगा ही कि 'ऐसी निराली दादी अम्माँ रहीं हमरे कोटिया वाली, इससे आगे बढ़ कर वे पूरे पूर्वांचल, देश और मानवता के लिए वे सदैव  एक अजस्र प्रेरणा-स्रोत बनी रहेंगी। समाज का ताना-बाना सुदृढ़ हो कर टिका रहता है ऐसी ही विभूतियों के योगदान से।

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Wednesday, October 10, 2018

सावन के पग बगिया में !!!!!

सावन के पग बगिया में !!!!!     


दबे कदम, सुन रसिया रे ! 
श्यामा आयीं सज धज के !!
हिल-मिल, खेलैं फुहरा में, 
भीजैं झिर-झिर झिरिया रे !!!

पग पगिया, सुन रसिया रे !   
ताल तलैया तरु तल रे !                
लहरि लहरि जल लेय हिलोरें, 
तव लय डोलै तरनी रे !!

झनन झनन, सुन रसिया रे !
केंका धुन, सब कुंजन में ! 
दादुर टेर, पोखरियन में, 
भीज परिंदा, गुड़-मुड़ रे ! 

रस बरसै, सुन रसिया रे ! 
छाई घटा, मन परबस रे !
भीजी धरती, भीज चुनरिया, 
जिउ छटकै, कस रसिया रे !!

कहाँ छुपे, सुन रसिया रे !
मनबसिआ मोरे, रसिया रे 
धुन लहकै, सुन रसिया रे !
जोह रहे फुल-वरिया में !! 

मधुर राग, सुन रसिया रे !
मधु टपकै, सब बिरवन ते। 
श्याम बदन, सुन रसिया रे !  
सावन के पग बगिया में !! 

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29 July 2018

'काल्ह आय ना आय !!!' .

'काल्ह आय ना आय !!!' .
किसी भी कारण से किसी और पर निर्भर होने की दशा में, कबीर दास जी की कहन मान कर,केतनाहू 'काल्ह करै सो आजु कर' पर चलना चाहै, आदमी परबस हो कर रह जाता है। तिस पर, अगर, अगला हर बार 'काल्ह' पर ही टालता जाय तब कहा कहै इसके सिवा: -
अरजी हमरी हैं वहां, कहते आयहु काल्ह,
काल सिरहाने है खड़ा, बाकी कछु ही काल।
यहै बात फिन फिन कहैं, सोच बतइहौं काल्ह,
हम स्वाचैं कल्ह आएगा, थोरै पल की बात।
वे बिसराएँ, कल का कहा, ना सुमिरैं वै काल्ह,
का जाने का काज कस, कबहुँ तो ब्वालें आज।
काल्हअगोरत जुग गवा, फिरहु न आए काल्ह,
लाल बुझक्कड़ काल्ह भा, ना जाने कब आय।
काल्ह तो ऐसा काल्ह भा, काल्ह कबहुँ न आय,
काल सुनिश्चित आएगा, काल्ह आय ना आय।। .
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