'लद्दाख: टकसाल खोलने से पहले !!'
पल पल रंग बदलते निहायत दिलकश नज़रों वाले सूखे पहाड़, बर्फीले शृंग, गहरे नीले आसमान में तिरते बादल, चमचमाते साफ़ पानी भरी नदियों, धाराओं और चश्मों वाली वादियों में पॉपुलर के ऊंचे दरख्त, विलो के शाख़दार झाड़, ख़ास तरह की चेरी, सिया या जंगली गुलाब, मिटटी की ईंटों से बने सपाट छत वाले मकानों से सजे गाँव, बौद्ध विहार, 'लघु चोरटेन' की कतारों जैसी कितनी ही खसूसियतों से भरे, और ऊंचे दर्रों से भरे हिमालय पार के सबसे ऊंचे और ठंढे मरू-स्थल में शामिल लद्दाख में पर्यटन और औद्योगिक टकसाल से सिक्के ढालने का ख्याल अच्छा है। लेकिन, यह सुनते ही मेरा ज़ेहन झनझनाने लगता है एक गंभीर आशंका से। इसी जद्दो-जहद में उत्तराखंड में बिना विचारे किए जा रहे अंधाधुन्द विकास से हुए विनाश के नज़ारे आँखों में डबडबाने लगते हैं।
पहले से ही बढ़ रहे लेह-लद्दाख जाने वाले पर्यटकों, बाइकर्स और ट्रेकर्स के रेले देख आमदनी की बढ़ती जा रही संभावनाओं में कोई शक नहीं। न्यूब्रा घाटी, तुरतुक, पैंगांग सो, चुमा थांग, निम्मू की जादुई खूबसूरती का सम्मोहन है ही कुछ ऐसा। मगर यह तभी तक हो सकेगा जब तक कि उस इलाके को वैसा ही बनाए रखा जा सके। और ऐसा करने के लिए वहाँ के कोनों-अतरों और सार्वजानिक स्थानों के तेज़ी से प्लास्टिक और कूड़े के ढेर में तब्दील होते जाने से निजात पाने और अच्छी तादाद में साफ़-सुथरे वाशरूम के इंतज़ामात कराने की अहम् ज़रूरत है। यहाँ आने वाला शायद ही कोई इस मसले से नावाकिफ होगा। औद्योगिक विकास की पहल के साथ इस पहलू पर और भी ज्यादा गौर करने की ज़रुरत होगी।
ऐसे में , लद्दाख के विकास की कोई भी योजना बनाने से पहले वहाँ की भू-भौतिकी, वातावरण, संस्कृति आदि की संवहन क्षमता (carrying capacity) की गहरी छानबीन और उसके मुताबिक़ नपी-तुली परियोजनाएं बनाना निहायत मुफीद होगा। आमदनी भले ही कम हो, लद्दाख की अपनीपहचान और मौलिकता से हरगिज़ समझौता नहीं होना चाहिए।
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