Friday, November 25, 2022

3. दो अक्टूबर 2022 


'बाड़ी' से थोड़ी ही दूरी पर उसी सड़क पर आगे नसीराबाद गाँव मैं यही कोई 1200-800 वर्ष  पुराने 'आस्तीकन बाबा' और 'कल्पा देवी' के ऐसे इष्टिका-मंदिर स्थित हैं जिनकी जोड़ का कोई मंदिर गंगा के उत्तरी भूभाग में कहीं नहीं । इनकी अत्यंत सुन्दर वास्तु-कला, नक्काशीदार अलंकृत ईंटों और  दीवारों पर लेपित महीन प्लास्टर पर निरूपित महीन कलाकारी के तो क्या ही कहने। लता-वल्लरियों, लघु चन्द्रशालाओं, पद्म-पत्र, घट के अंकन निरखने वालों की पलकें नहीं ढुलकतीं । देश के सबसे प्रमुख तीर्थों में सम्मिलित नैमिषारण्य, महर्षि दधीचि की तपोस्थली माने जाने वाले मिश्रिख भी बहुत दूर नहीं।    

सिधौली बस-स्टेशन का अहाता साफ़-सुथरा व्यवस्थित दिखा लेकिन परिसर के पश्चिमी दक्षिणी कोने का सूनापन साल गया। आँखें तलाशती रह गयीं कभी वहां गुलजार रहने वाली चाय-समोसे-मिठाई की दूकान जिसमें बिका करती थी इलाके की  'पलंगतोड़' नाम से मशहूर दूध की मिठाई। 'रेलवे लाइन' की तरफ वाली सड़क से लगी छप्पर-छानी वाली दुकानें भी नदारद दिखीं। 

सीतापुर जाने वाली सड़क पर अगले चौराहे से दाएं हाथ मुड़ने वाली पक्की सड़क के साइनबोर्ड़ पर मोटे हर्फों में लिखा 'बिसवां' पढ़ कर उधर मुड़ते झुरहरी छूट गयी। करीब-करीब चौवालीस बरस बाद अपनी जन्मभूमि की ओर ले जाने वाली उस सड़क पर आगे बढ़ते हुए कहने-लिखने से परे भाव जागते रहे। यहाँ से बिसवां तक की सड़क पर चलना भीतर संचित युग में पैंठते चले जाने जैसा रहा। पहले ही कदम से लगने लगा उधर की दुनिया बहुत आगे बढ़ कर बदल चुकी है।  

सड़क के दायीं ओर पूरनपुर की  गड़ही के जल-तल पर पड़ा हरे रंग का जाल। गर्दा-चहला-गड़हा वाली सड़क पर हचर-हचर चलने की जगह चमचमाती पक्की डामर वाली रोड पर आराम से चलते हुए।  नयी बनी रिहाइशी बिल्डिंगें, एटीएम, कालेज , पेट्रोल पम्प। बिलकुल ही बदली हुई दृश्यावली।  पुरानी यादों में समाए सड़क के दोनों ओर बचे रह गए छतनार पेड़ों ने  समझाया कि लखनऊ से सिधौली तक की फोरलेन रोड सूनी-सूनी सी क्यों लगती रही !!  सरपट गाड़ी दौड़ाने के लिए खासी चौड़ी जगह पर ढंग के डिवाइडरों पर सलीके से रौंपे गए झाड़-पौधों के बाद भी।  काश ! ऊंचे गझिन पेड़ों की डालों की छतरी के नीचे से गुजरने का एहसास भी पहले जैसा हो सका होता। 

छोटी-मोटी बाज़ार की दूकानें, जब तक टटोलते 'सीता रसोई' की पुरानी इमारत से आगे निकल गए। नव निर्मित तालाब, बदली राजनीति के निशान 'छीता पासी द्वार', 'अम्बेडर द्वार' देखते पार कर गए खमरिया पुल। सोचते रहे पता नहीं अब भी यहाँ रात में राहजनी  होती होगी या नहीं। आगे तकरीबन भठ चुकी नहरिया में बहता पानी याद आया। उसी से सट कर लगी बाज़ार की रौनक देख कर कभी वहां पसरा रहने वाला सन्नाटा याद आया।  सुबह की सैर पर यहाँ तक टहलने आने, टपका-जामुन बीनने के दिन याद आए।  

टिकरा के मंदिर के सामने की दशा देखकर एकबारगी हक्क रह गया। इत्तिर बुलंद रही एक विशाल हवेली। मेरे पिता जी के दोस्त टिकरा रियासत के तालुकेदार राजा अजय प्रताप सिंह की रिहाइश। ऊंचे फाटक वाले लकड़ी के दरवाज़े के अगल-बगल दोनों ओर चौहद्दी के किनारे बने अस्तबल की बाहरी दीवारें। बचपन में हम अक्सर अजय चाचा के बच्चों के साथ हवेली में खेलने आते । उसके सामने वाले हिस्से में राजा साहब के परिवार के लोगों द्वारा शिकार में मारे गए बाघों की भुस भरी ट्राफियों में लगी कांच की चमचमाती आँखें याद आयीं। बहुत याद आए छत से लटकते झाड़-फानूस जिनके बहुकोणीय क्रिस्टल तोड़ कर सूरज की रौशनी में सतरंगी आभा देख देख कर चकित होते रहते।  जिनके साथ खेलते उन भार्गवी दीदी, पिप्पी और पाकू राजा के चेहरे उसी तरह दिखने लगते। दिल में बसी उस चहकार जगह पर हवेली का नामो-निशान तक नहीं पा कर गहरी उदासी में सन्न रह गए। 

पता चला जीर्ण-शीर्ण टिकरा-हवेली की एक-एक ईंट बिक चुकी है। अब उसी जमीन पर रिहाइशी मकानों के लिए काटे जा रहे प्लाट देख कर लगा ज़मीन पर नहीं जिगर के टुकड़े कट रहे हों। मंदिर के आसपास लहराने वाले मोर भी कहीं नहीं दिखे। जिस जगह पहुँच कर हमारे चेहरे चमकने लगते उसे देख कर कभी, कितनी मनहूसियत ने घेर लिया वहीँ । सफर में आते दिलकश मुकामों तक पहुँचने की गहरी चाह, पहुँच कर ठहरने-मुग्ध होने, फिर  बिछड़ने की कलख समेटे आगे बढ़ने की नियति असल जीवन के सफर की तरह ही होती है।  

'राजा डीह' तक पसरा रहने वाला सन्नाटा तलाशते हुए याद आया एक बहुत पुराना वाकया। उस समय 'बिसवां चीनी मिल' में मुनीजरी कर रहे मेरे बाबा फैक्ट्री के काम से अक्सर इसी रस्ते लखनऊ आते-जाते रहते।  एक बार देर रात उनकी कार यहीं कहीं खराब हो गयी। थोड़ी ही देर में अँधेरे से प्रकट हुए कुछ लोगों ने कार को घेर लिया। अपने मूल स्वाभाव के मुतबिक बिना सोचे-समझे बाबा उन पर डपट पड़े - 'इतनी रात में तुम लोग यहाँ क्या कर रहे हो !! चोर-डकैत हो क्या !!' अब रहे तो सांचौ  वे लोग डकैत ही मगर बाबा की आवाज सुन कर उन्हें पहचान गए।  स्थानीय लोगों पर बाबा की बात ब्योहार के रसूख के चलते बस इतना ही बोले 'रात बिरात ऐसे न चला करौ बप्पा !!' उसके बाद बाबा उन्हें गरियाते रहे और वे चुपचाप उनकी कार को ढकेल कर बिसवां की 'रेलवे क्रासिंग' को क्रास करा कर वापस लौट गए। सोचता रहा क्या  ऐसे डकैत अब भी होते हैं यहाँ !! 

'रेलवे क्रासिंग' के पार बाएं हाथ का 'रेलवे स्टेशन', दाएं हाथ गन्ना गाड़ियों की तौल के लिए ले जाने वाली कतारों के पीछे वाला दाख्खिन क्वार्टर जैसे छोड़ गए थे वहां से नदारद मिले। सामने की चुंगी-चौकी और बैरियर भी गायब। बरसात में बगल की 'रेलवे पुलिया' के नीचे से आगे खलार में आने वाली बहिया में जहाँ मछलिया उलीचने का खेल चलता वो भी नयी दुकानों के तले पूरी तरह से दब गयी । कुछ ही मीटर चल कर घूम गए दाएं हाथ फ़ैक्ट्री के फाटक की ओर, अपने जन्मस्थान के दर्शन की ललक लिए।  

जिस मकान में 1974 में 'साइकिल यात्रा' के दौरान अपने परिवार के साथ ठहरे थे बाहर से ही उसका दर्शन करके सबर करना पड़ा। अपने जन्म के अनन्तर जहाँ बचपन सहित सत्ताईस बरस आवास रहा हो उसे चौआलीस साल बाद वो भी बाहर से ही देख कर सबर करने की विवशता लिखने कहने से परे। दादी-बाबा माता-पिता के इस दुनिया में न रहने का शून्य बड़ी जोर से अकुलाने लगा। परिवारी-जनों, पड़ोसियों, संगी-साथियों बिन सब सून। बचपन के खेल, घटनाएं याद आ आ कर टीस भरी हुमुक में ढल कर सताने लगीं। फैक्ट्री के फाटक से आवासीय परिसर तक के जर्रे-जर्रे में भरी सुधियाँ ही सुधियाँ। कहाँ तक लिखें। फिर भी कुछ को साझा किए बिना रहा नहीं जाता।   

फैक्ट्री के 'प्राइमरी स्कूल' में पढ़ाने वाले 'अचारी जी'  खासी लम्बी चोटी रखते। अक्सर बच्चों को पहाड़ा रटने में लगा देते। एक तरफ मॉनीटर साहब के साथ बच्चे दो की दो, दो दुन्ना चार, दो तियांई छे ----- की सम पर मूड़ी हिला-हिला कर रट्टा लगाने लगते, उधर अचारी जी  पाँव पसारे कुर्सी की टेक लगा कर खर्राटे भरने लगते।  खुराफात में अग्रणी हमरे बड़के भइया ने एक दिन उनके साथ भी खेल कर दिया। अचारी जी के खर्राटे शुरू करते ही दबे पाँव उनकी चुटिया कुर्सी के पिछली टेक में बाँध आए। ये कारस्तानी देख कर भी मुस्कुराते हुए बच्चे पहाड़ा रटते अनजान जैसे बने रह कर आगामी घटना का इन्तिज़ार करने लगे। थोड़ी ही देर में अचारी जी की झपकी टूटने पर सर उठाते ही करारे झटके से खिंची चोटी की पीड़ा से पहले तो बहुत जोर से कराहे, फिर माजरा समझ में आते ही चिल्लाए - 'मा - s - (र) डारिस हत्यारु। यू बदमाशी ई ----- के अलावा  और कोई करि ही नहीं सकत। रहि जाओ, अबहिनै 
बताइत है पंडित जी से तुम्हार करनी । या तो तुमहे पढिहौ हिंया या फिर हमही स्कूल छाँड़ि दयाब।'  हंसी रोकने की जबरन कोशिश में  बच्चों का बुरा हाल हो गया।   

फाटक के बाएं बगल वाली फकिरवा की मिठाई की दूकान की नदारगी बहुत अखरी। बरसों से सुधियों में धड़क रहा एक और अहम अंग बुरी तरह आहत हो गया। फकिरवा के यहाँ मिलते थे चार आने में चार पेड़े, निखालिस दूध-खोए के स्वाद वाले। बाबा से जिद्दियाते पेड़ा दिलाने के लिए, वे फकिरवा की दुकान के लिए पर्ची पर लिख देते 1/2 पाव। हम उछलते हुए दौड़ जाते उसकी दूकान पर पेड़ा खाने। महीने के आखीर में फकिरवा सब पर्चियां बाबा के सामने रख कर सारा भुगतान एक साथ ले जाता। एक बार ऐसा हुआ कि पर्चियों का टोटल देख कर बाबा उखड़ गए - 'अबे फकिरवा !! इतना पेमेंट कैसे हुआ !! इतना पेमेंट कैसे हो गया रे। चोर-बेईमान। फर्जी पर्ची बना लाया है।  हमें बेवकूफ समझता है क्या। मार मार के उत्तू बना दूंगा।' ऐसे में वैसे भी बाबा के गुस्से और धारा-प्रवाह गालियों के आगे  फकिरवा बेचारा क्या बोलता ! चुपचाप सुनने के अलावा। बाबा का क्रोध उतरा तो एक-एक पर्ची उठा-उठा कर ठीक से देख कर सहज भाव से बोले  - 'दस्खतवा तो हमरै है !! केतना पेड़ा खा गए ई लउंडवे !' और फकिरवा का पूरा भुगतान कर दिए। असल में इस कारस्तानी के पीछे भी बड़कन्नु ही रहे। बाबा पर्ची पर लिखते 1/2 पाव और बड़कन्नु आधा के आगे एक बढ़ा कर कर देते एक सही एक बटा दो (1-1/2) पाव, कुछ पर्चियों पर तो बाबा का दस्तखत भी बना देते। पर्चियां देख कर बाबा समझ तो सब माज़रा गए मगर चुप लगा गए, बड़कन्नु खानदान के बड़े लरिका और उनके दुलरवा जो रहे।

और भी बहुत कुछ याद आता रहा। बहुत याद आए मंदिर स्कूल के प्रिंसिपल सौम्य सरल श्री कृष्ण स्वरुप अग्रवाल, श्री गजराज सिंह यादव, मुंशी जानकी प्रसाद, चंद्र किशोर अवस्थी  और श्री हरद्वारी लाल वर्मा। कस्बे में गुरु पड़रिया, बाबू कृपा दयाल श्रीवास्तव, जगन बाबू, बबुआ चाचा, अब्दुला बाबा, झक्खड़ी महाराज, हवलदार शीतला प्रसाद सिंह, अजुधिया बाबा, पंडित राम उजागिर।  एक-एक व्यक्ति एक-एक अध्याय समेटे। लिखने लगें तो एक अलग किताब बन जाए।  

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