Thursday, November 24, 2022

2. दो अक्टूबर 2022

'पहियों के इर्द गिर्द': 'कीढा पासी': ' नरोत्तम दास - सीस पगा'

साइकिल पर सवार हम तीन दोस्त 1974 में लखनऊ से चले काठमांडू के लिए। तब हमार उमर रही कुल बीस बरस। पहला पड़ाव सीतापुर जिले में बिसवां स्थित अपने जन्म-स्थान पर ही डाला था। उस पर लिखी किताब - पहियों के इर्द गिर्द - पहला संस्करण भी जन्मदिन की तारीख भी २ अक्टूबर १९७६ रही। उस दिन तेइसवें वर्ष की आयु में कदम रखा था।

वो यात्रा पूरी हो कर भी पिछले अड़तालीस साल से अंतर्मन में चलती चल रही है उन्हीं रास्तों और मुकामों पर। इस बीच दुनिया बदल चुकी है मानसिक और भौतिक दोनों रूपों में। जवानी के वो दिन कब के पार कर चुके हैं सीनियर सिटीज़न के मुकाम से आगे भी नौ बरस आगे बढ़ आए हैं। इस वे में बचपन की सुधियाँ कुछ ज्यादा ही सताती हैं इस उम्र में। विधाता के विधान बड़े विचित्र हैं, कुल 80-85 किमी की दूरी पर लखनऊ में रह कर भी भी बिसवाँ जाने का प्रोग्राम जाने क्यों बार-बार बन-बन कर टलता रहा। लेकिन इस बार पहुँच ही गए उसी दर पर ।
उनचास साल पहले और अब की दोनों यात्राएं एक ही जगह से, एक ही भूभाग पर, बहुधा उसी रास्ते से तय की गईं। मगर इस बार का सफर अलहदा तजुर्बों से गुजरा। तब चले दो पहिया साइकिल से, इस बार चौपहिया कार से। तब जवानी की तरानी और ताकत से भरपूर, इस बार भी हौंसले वैसे ही मगर तन की सीमाएं। तब, जब मन चाहा निकल पड़े, आगा पीछा ज्यादा सोचे समझे बिना ही। साइकिल पर झोले लटकाए, कुछ रूपए जेब में रख लिए बस। इस बार सालों खुरखोदने के बाद पूरी प्लानिंग से पूरे साजो सामान के साथ मतलब भर धन का जुगाड़ करके निकले।
तब तीसरे पहर के बाद चल कर आधी रात में पहुँच सके थे पहले पड़ाव तक। सीधे रास्ता नापने की धुन में । तब आम तौर पर अगल बगल से बेखबर जाने-पहचाने रास्ते पर पैडिल दबाते जल्दी जल्दी बढ़ते हुए। फिर भी लग गए करीब छे-सात घंटे। अबकी बार फर्राटा भरती कार में उतनी ही दूरी तय कर ली कुल डेढ़ घंटे में ही मगर उतनी ही देर में उतनई ही दूरी वाले रास्ते में पहली बार से कहीं ज्यादा देखा और उससे कई गुना ज्यादा दूरी का सफर तय किया अंतर्मन में बसे युगों लम्बे सुधियों के पथ पर। उन्हीं जगहों को चकर-मकर ताकते पूरी तरह बदल चुके पहलुओं में खोए हुए। गुजरे पांच दशकों से ज्यादा वक्त में जुटी जानकारियों के परिप्रेक्ष्य में आंकते हुए।
लखनऊ से बक्शी तालाब तक का तब का सूनसान रास्ता चहल-पहल से भरा झट से पार हो गया। सिविल डिफेंस ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट के पूरब में एनसीसी कैम्प वाला निर्जन इलाके में बैनेट-फाइटिंग और मशीन गन चलाने की तालीम पाने के दिन याद आए मगर वो जगह नई बानी ऊंची इमारतों की आड़ में कब निकल गयी इसका आभास एक नहीं मिला।
आँखे तलाशती रहीं सड़क के किनारे वाला वो कुंआ। नयी बानी दुकानों में गायब हो गया या छुप गया। वो बात अब तक बीत गयी। पचपन बरस से भी वाली सुधियों में से उभर आए पुराने वाकये। बिसवां से लखनऊ तक अपने बाबा के साथ जीप से आने वाले दिन। रिटायर्ड फौजी बड़ी बड़ी मूंछों वाले बैसवारी ठाकुर साहब बगल में दोनाली बन्दूक रख कर स्टेरिंग संभालते। सिधौली तक गड्ढे वाली 28-29 किलोमीटर कच्ची और उसके आगे की 35 किमी पक्की मगर खस्ता हाल सड़क पर बख्शी का तालाब तक धूल के गुबार में पूरी तरह धूसरित हो जाते। ठाकुर साहब स्टेशन के पास वाले कुंए से लगी सड़क के किनारे रुकते। लोटा डोर लेकर कुंए से पानी निकल कर अपने हाथ मुंह धोते, फिर हमें भी तरोताज़ा करवाते। दिल ढूंढता रह गया फिर वही दिन।
इटौंजा के पेड़े वाला मुकाम निकल गया सर्र से पार हो गया बजरिए फ्लाई ओवर। फोर लेन वाली सड़क के डिवाइडर पर मंझले पेड़ों की पौध के बीच शिद्दत से याद आये कीढा पासी। पास ही में कुम्हरावां गाँव के पास जहाँ अब अग्रज इंद्र भूषण सिंह का फॉर्म-हाउस देखने जाते हैं। उसी गाँव के समाजवादी नेता राम सागर मिश्र के नाम पर लखनऊ की जिस बसावट का नाम रखा गया उसे ही नाम पलट वाली राजनीति के चलते बाद में इंद्रा नगर कर दिया गया। हो सकता है आगे उसी का नाम कुछ और धरा दिया जाए। राम सागर मिश्र जी की याद के साथ याद आने लगे उनके अग्रज लम्बे छरहरे धनुही सांठा धारी ऊँचे कद वाले पंडित बद्री बिशाल मिश्र जी की ऐंठी हुई धवल मूंछें। उन दिनों मेरे पिता जी वहां एक ऐग्रिकल्चर-फॉर्म की देख रेख के सिलसिले में उनके साथ वहां जाते रहते। लखनऊ युनिवर्सिटी में हमारे समय में कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े नेता रहे इसी गाँव के निवासी और मिश्र जी के भतीजे श्री अशोक मिश्र भी याद आते रहे। उन्हीं दिनों इन्हीं लोगों में किसी से सुनी 'कीढा पासी' की कहानी तबकी सामजिक बुनावट की बानगी बखानती है।
'उस ज़माने के नामी डकैतों में गिने जाने वाले कीढ़ा पासी ने अपने वसूलों के चलते बड़ा नाम कमाया। एक बारअंधेरिया रात में बाराबंकी के किसी गांव में डाका डालने के इरादे से किसी घर की छत पर घात लगा कर बैठ गए। वहीँ से उन्होंने आहट पा कर घर में चल रही औरतों की बातकही सुनी। उन बातों से उन्हें पता चला इस घर में तो उनके गांव की बिटिया ब्याही है। ये जानते ही उन्होंने उस घर में डाका डालने का इरादा रद्द करके दल-बल सहित लौट आए। कुम्हरावां पहुँच कर बिटिया के बाप से सारा मामला बयान करते हुए माफ़ी मांगते हुए बोले - 'बड़ा भरी पाप करै से बचि गएन दादा !! अपनेन गाँव की बिटिया केरे हिंया डकैती डारै पर लगा पाप अगल्यौ जनम तक नाहीं छूटत। रामै जी की किरिपा तेने बचि गेन।'
सही ही कहा गया है जब तक जहाँ रहिए उस इलाके की वकत समझ में नहीं आती। वही जगह लम्बे वक्त तक कहीं और प्रवास करने पर बहुत अपनी अपनी लगने लगती है। वहीँ रहते हुए सामान्य सी लगने वाले उसी इलाके की विशेषताएं ज्यादा उजियार दिखने लगती हैं। बरसों इसी रास्ते पर चलते समय जिधर कभी ध्यान नहीं गया उनको संजोने लगा। आम तौर पर नखलउआ वालन की नज़र के फोकस से बाहर रहै वाले इस इलाके की महत्ता कहाँ जान पाएंगे जब वहीँ के जन्मे बाढ़े हमही कभी एकवट नहीं सोचे।
सिधौली से नैमिषारण्य जाने वाली सड़क का साइनबोर्ड पर लिखा 'बाड़ी' नाम पढ़ते ही गुनगुनाने लगे -
'सीस पगा न झगा तन पै, प्रभू! जानै को आहि! बसै केहि ग्रामा। धोती फटी-सी लटी-दुपटी, अरु पाँय उपानह की नहिं सामा॥द्वार खरो द्विज दुर्बल एक, रह्यो चकि सों बसुधा अभिरामा। पूछत दीनदयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा॥
आगे-पीछे खोपड़ी हिला हिला कर बचपन में रटने सुनाने की आदत के मुताबिक़ अब भी आपोआप हिलने लगे। पत्नी के आग्रह पर बालसखा श्री कृष्ण से मिलने उनके महल के द्वार पर पहुंचे दरिद्र ब्राह्मण सुदामा की दशा के चित्रण वाला ये सवैया रचा है सोलहवीं शताब्दी में बाड़ी ग्राम के निवासी नरोत्तम दास ने सुदामा चरित जैसे अमर काव्य में। हिंदी साहित्य का ककहरा भी पढ़ने वाला अथवा लोक परम्परा में तनिक भी दखल रखने वाला कौन नहीं जनता उनका नाम।

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