Thursday, November 24, 2022

1. दो अक्टूबर 2022 

 'कई आसमां हैं, इस आसमां से आगे --'

जन्मस्थान पर बीते बचपन किशोर वय की यादों की ललक खींच ले गई पिछले जन्मदिन दो अक्तूबर को वहीं । साढ़े बयालीस बरस बाद । उससे भी दो साल पहले साईकिल से वहां जाने का रास्ता भी फिर से देखने की जिज्ञासा जागी ।



पहुंच कर भावुक मन लिए जीने लगे दिल में संजोई मीठी खट मिट्ठी टीसती हूकती सुधियों में । वही आवास जिसके कोने वाले कमरे में जन्मे । सामने का लान, पेड़ पौधे, झूला, सुधियोँ में बसी छवियों में ढूंढने लगे।

खेलते-कूदते, पेंगें मारने या चुपचाप बैठ कर बुनते सपनों वाले वे दिन । तब की संवेदनाओं के हिलोरें। थिर तालाब के जल तल पर हल्की हवा की सिहरन सी ।
अपने आंगन में पाले परिंदों की फड़फड़ाहट, चोटिल कबूतर के सीने से रिस रहा खून पोंछ कर मलहम लगाने, बंदरों के उत्पात । हमजोलियों के साथ खेलने, रूठने, मनौनियों वाली बातें। किसी की मुस्कुराहट पर दिल आ जाने, घंटो बेमशरफ जाने क्या क्या बतियाने वाले दिन । कॉपी में चुपके से लिखी कविताएं नेह पातियां चुपचाप अकेले में खुद ही पढ़ कर रख लेने वाले बोल सुन पड़ने लगे । गुदगुदाने लगे ।
सबसे ज्यादा याद आए रातों में खुले आंगन में बिछी चारपाइयों पर लेटे लेटे आसमान में टिमटिमाते तारे । बाबा बताते उनके नाम और बताते कई आसमां हैं इस आसमां के आगे । सोचने लगता - चलें उड़ के चलें, उड़ते रहें उन्हीं में कहीं । '
उसी आवास के बाहर खड़े भर आए मन से सोचते रहे अब तो सचमुच आगे के आसमां में अकेले उड़ जाने के दिन आ रहे। आज देख लें मिल लें जी भर के । न जाने कब उड़ चलें ।
दो महीने बीतने को आए तबसे, जी रहा हूं बरसाती सोतों की तरह फूट रही उन्हीं उनीदी संवेदनाओं में। पलट पलट कर डायरी और सुधियों के पन्ने, नए सिरे से भर भर कर शब्दों में भर लेने लिख लेने को आतुर, सिमट ही नहीं रहे।
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