Monday, November 4, 2019

'काश: मशगूल रह पाते !'

Rakesh Tewari 03.11.2019

'काश: मशगूल रह पाते !'

अपने अपने हिस्से की
तवारीख तलाशते,
दुनिया जहाँ में,

अफ्रीकी खित्तों सेद्वीपोंमहाद्वीपों के,कोने अतरों तक,हिज्जे हिज्जे में बँटने कीजद्दोजहद में।

अपनी अपनी
अलग पहचान बनाने की
बेमशरफ़ कोशिश में
खानदानी, मज़हबी,
भाषा-बोली,
तहज़ीबी 'पावर ज़ोन;
बनाने की
मृग मरीचिका में।

ज़ाहिरन,
जाने-अनजाने
फंस जाते हैं,
फ़र्ज़ी फ़सानों के
नारों वाली
फसादी फेहरिस्तों,
नामालूम सी
तदबीरों तकरीरों में।

इन्हीं फितरतों का
फायदा उठा कर,
बहका कर,
लोग जुट जाते हैं
बेजा ताकत बटोरने,
अपने ही कुल, कुनबे,
मुल्क पर
हुकूमत करने में।

आखिरकार,
हासिल नहीं होता
कुछ भी, सिवा
आपसी सिर फुटौवल
मारा मारी, जंग और
घुप्प अंधी गली में
धंसते हुए,
गुम हो जाने के।

काश !
हम पहुँच पाते उन,
मुकामों तक,
बेहतर रास्तो और
उसूलों के दम पर
कुदरती दस्तूर पर,
मशगूल रह पाते,
आपसदारी की बरकरारी में।
-------

No comments:

Post a Comment