Rakesh Tewari
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' --- समझु न आए'
नील गगन में कबौ उड़ाए,
कबौ उदधि तल बूड़ी जाए,
सपन लोक सुन्दर सजवाए,
कबौ घोर अवसाद जुटाए।
मन की गति कछु समझु न आए।।
मन की गति कछु समझु न आए।।
कबौ उदधि तल बूड़ी जाए,
सपन लोक सुन्दर सजवाए,
कबौ घोर अवसाद जुटाए।
मन की गति कछु समझु न आए।।
मन की गति कछु समझु न आए।।
लागै थिर यहु जगत सुहाए,
चलत फिरत कारज करवाए,
मन विचरै कहुँ और समाए,
मानो जागत जोग लगाए।
मन की गति कछु समझु न आए।।
मन की गति कछु समझु न आए।।
चलत फिरत कारज करवाए,
मन विचरै कहुँ और समाए,
मानो जागत जोग लगाए।
मन की गति कछु समझु न आए।।
मन की गति कछु समझु न आए।।
मथ डारै तबही अखुआए,
सुख-दुःख दूनो में रचवाए,
ऐसी यहु साधना कराए,
देखी-सुनी पढ़ी ना जाए।
मन की गति कछु समझु न आए।।
मन की गति कछु समझु न आए।।
सुख-दुःख दूनो में रचवाए,
ऐसी यहु साधना कराए,
देखी-सुनी पढ़ी ना जाए।
मन की गति कछु समझु न आए।।
मन की गति कछु समझु न आए।।
निकसि भाव अतिरेक मँझाए,
समथर भूमि पाँव धरि पाए,
जब समझै सम-धारा आए,
तनिकै भर में तुला डोलाए।
मन की गति कछु समझु न आए।।
मन की गति कछु समझु न आए।।
समथर भूमि पाँव धरि पाए,
जब समझै सम-धारा आए,
तनिकै भर में तुला डोलाए।
मन की गति कछु समझु न आए।।
मन की गति कछु समझु न आए।।
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