'घुम्मकड़ राज'
(एक और पीडीएफ: आपके लिए)
(एक और पीडीएफ: आपके लिए)
वो कहते हैं ना, घूमने वालों ने दुनिया बनाई और घर-घुस्सुओं ने पाई हुई भी गंवा दी।
बिना घुमक्क्ड़ी पुरा-विद्या का ककहरा भी नहीं पढ़ा जा सकता। मतलब पुरवा-पथरा-सील-लोढ़ा के अठारह पुराण मथने से साथ 'घुमक्क्ड़-शास्त्र' का मंथन किए बिना नव-रतनों की तो कहा कहे एग्गो रतन पाने की बात तक नहीं सोची जा सकती। इतनी साधारण सी बात अगर हमारे शिक्षा जगत के 'विद्यावान गुनी अति चातुरों' के भेजे में धंस पायी होती तो अब तक दुनिया जहान के हर कोने में हमारी कीर्त्ति पताकाएं फरफरा रही होतीं।
बस इतना ही तो करना रहा कि 'घुमक्क्ड़ शास्त्र' भी पुरातत्व के कोर्स में शामिल कर लेते। असल विडंबना तो ई हौ कि आपने देश की बड़का युनिवर्सिटी से लगायत कैम्ब्रिज-ऑक्सफ़ोर्ड पलट बड़कवा लोग आजमगढ़ वाले डॉन 'दाऊद' का नाम तो खूब चुभलाते हैं लेकिन कुछ बहके हुए बहल्लों को छोड़ कर उसी जिले में जन्मे घुमक्कड़-राज 'राहुल बाबा' और उनके लेखे इस 'शास्त्र' के बारे में जानते ही नहीं। औरों की देखी सुनी नहीं अपनी लेखी दावे से कहता हूँ कि इस ज़िंदगी में थोड़ा बहुत जो कुछ बन पाया राहुल बाबा के भूले से पड़ गए छीटों का ही सुफल है। इसी लिए जब किसी लायक बन पाए तो राहुल जी की शतवार्षिकी पर प्रकाशित 'प्राग्धारा' का तीसरा अंक उन्हें समर्पित करना नहीं भूले।
'प्राग्धारा' का वह अंक छप कर आने पर उसके वितरण की सोच ही रहे थे कि हमारे विभाग की आला अफसरान ऑफिस का औचक निरीक्षण करने आ धमकीं। उनकी कड़क मिज़ाज़ी और अर्दब के दूर दराज़ तक कहे सुने जाते किस्सों के चलते हम सब उन्हें देखते ही हलकान हो गए। एक एक कमरे, कोने अतरे में इधर उधर बेअंदाज़ बिखरे कागज़ पत्तर, पुरवा पथला का मुआइना करते, इसके पहले कि उनका पारा चढ़ता, उनकी तीखी नज़र मेज़ पर धरे 'प्राग्धारा' के अंकों पर पड़ गयी। उनके पूछने पर बताया - हमारी वार्षिक शोध पत्रिका है, अभी अभी छप कर आयी है। वे एक प्रति उठा कर पलटने लगीं, हम उनके चेहरे के भाव पढ़ने की कोशिश करते रहे और वे पहला पन्ना उलटते ही उस पर छपी राहुल जी की तस्वीर कर अटक कर रह गयीं - 'अरे मैं तो अभी 'राहुल सांकृत्यायन सेंटेनरी कमेटी' की मीटिंग से आ रही हूँ। किसी को इनके बारे में कुछ ठीक-ठाक पता ही नहीं था, मुझे भी नहीं। और यहाँ तो यह पब्लीकेशन भी हो गया, विभाग के लिए क्रेडिट की बात है।' उनकी आँखों में प्रसन्नता की कौंध देख सांस में सांस आयी।
'अब क्या करोगे आप इसका ?' उनका अगला सवाल था।
'अब इसे डिस्ट्रीब्यूट कराने का इरादा है।'
'नहीं। इसे गवर्नर साहब से रिलीज़ कराया जाएगा। उसकी तैयारी करिए।
'अब इसे डिस्ट्रीब्यूट कराने का इरादा है।'
'नहीं। इसे गवर्नर साहब से रिलीज़ कराया जाएगा। उसकी तैयारी करिए।
आनन - फानन में श्री राज्यपाल की सहमति, कार्यक्रम का अनुमोदन सब हासिल कर के राजभवन के सभागार में शानदार लोकार्पण अखबारों की सुर्ख़ियों में छा गया।
हमसे जैसा बन पड़ा वैसा लिख कर हमने राहुल जी की स्मृति में प्राग्धारा में अर्पित किया था वह 'सेंटेनरी कमिटी' के सदर कौशिक जी को ऐसा भाया कि उन्होंने सूचना विभाग से उसकी हजारों प्रतियां छपवा कर बंटवाने की संस्तुति कर दी। पुरातत्व के नज़रिए से की गयी हमारी इस कोशिश में अत्यन्त विशाल व्यक्तित्व और दर्शन, यात्रा, इतिहास आदि की तनिक सी झलक भर ही थी इसलिए इस अप्रत्याशित डेवलपमेंट से हम आश्चर्यचकित रह गए लेकिन कमेटी के एक माननीय सदस्य को हमारा यह मान तनिक भी रास नहीं आया। उनके लगाए भेंड़ का नतीजा यह निकला की वह संस्तुति ठंढे बस्ते के हवाले हो गयी। हम पर इसका कोई ख़ास असर नहीं पड़ा, ऐसे ही पहले जैसे ही धरती खूंदते रहे। कभी कभी यह जरूर मसोसता कि अगर यह ज्यादा लोगों तक पहुँच गया होता तो शायद 'विद्यावानों' के कमलनयन प्रस्फुटित हो जाते।
अब पचीस बरस बाद ९ अप्रैल २०१८ को जब 'राहुल जी की' एक सौ पचीसवीं जयंती आ रही है, उनके प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए, उन पर लिखे अपने पुराने लेख की पीडीएफ प्रति उन सभी साथियों के लिए तैयार कर ली है जो उसे पढ़ने, घुम्मकड़ी और 'घुम्मकड़ राज राहुल जी' में रूचि रखते हों।
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