Friday, April 20, 2018

अफ़ग़ानिस्तान २ : सांप - सीढ़ी

अफ़ग़ानिस्तान २ : सांप - सीढ़ी

तेईस बरस पार कर चली वय, दिनों दिन गढाती बचपन वाली लगन में डुब्ब, सुधियों वाली परतें पलटते सुध में आए जब ऑटो वाले ने ठिकाने का पता पूंछा। चौंक कर अपने आप में आया। 
कुछ देर इधर-उधर देख कर लोकेशन समझने की कोशिश करता रहा। फिर मन्दिर और उसके बगल से कॉलोनी में जा रही सड़क देख कर आगे का जाना-पहचाना रास्ता पकड़ लिया।

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उसकी माँ, देखते ही, आँखों में ममता भरी चमक छलछलाते हुए बोलीं - "व्हाट ए प्लीजेंट सरप्राइज़!!! तुम, कब आए ? कैसे आना हुआ ?
वहीँ लॉबी में डाइनिंग टेबल की कुर्सियां खींच कर जमावड़ा जम गया। खिड़की से बाहर का नज़ारा देखते हुए इत्मीनान से बताया - मोटर साईकिल से दुनिया देखने का मंसूबा। श्याम और चंदू के साथ उसी दिन आ कर इलाके के सांसद दीक्षित जी के यहाँ डेरा डालने और वीसा की दौड़म-भागी। फिर, मौका लगते ही चुपचाप श्याम को बता कर खिसक आने की बात।
सारा हवाल सुन कर बोलीं - "ओह ! ऐनदर एक्सपीडिशन। वेरी गुड।"
बुलाए, बिना बुलाए, चाहे जब, जो भी आ जाए, उसके ज़िन्दादिल डैडी हर किसी की आवभगत दिल-खोल कर करते, और उस दिन भी उन्होंने कसर नहीं छोड़ी - "मूंछें भी तो जबर रखाय लिए हो !! कोई फिकर नहीं, काबुल के लिए अपने यहाँ से रोज एक फ्लाइट जाती है, ज़रुरत होगी तो मदद मिल जाएगी। अब आए गए हो तो हो जाए 'कचरमकूट' (भोजन पानी)।" फिर लुंगी लपेट कर, हमेशा की तरह जुट गए, थोड़ी-थोड़ी देर में सोमरस गटकते, स्वादिष्ट भोजन बनाने के जुगाड़ में। उनके बारे में यूं ही नहीं कहा जाता रहा - 'हॉस्पिटैलिटी हिज फोर्टे।'

और फिर जब हमीं दोनों रह गए, उसने नेहरस में बूड़े बोलों में मनुहार किया - "हमें भी ले चलो अपने साथ, बड़े मज़े आएँगे। जहाँ मन करेगा टेंट लगा कर, स्लीपिंग बैग फैला लेंगे।"
जब तक कुछ जवाब जुटाता, उसी समय उधर से गुज़र रही, माँ ने दुलरा कर सचेत किया - "इसे मत ले जाना साथ में, तंग हो जाओगे। बार बार भूल जाते हो 'महेश बाबू' की कही बात।"
और, उसके बाद, अगल-बगल देश-दुनिया, गहराती सांझ, किसी बात का कोई होश नहीं रहा। बातें और बातें, बेतरतीब बातें, कैसे यह ट्रिप बना, घर की, हॉस्टल की, कैरियर की, पढ़ाई की -------- बातों बातों में कब खाना लगा, कब घर के सब लोग खा कर सो गए, कुछ आभास नहीं। आँखों आँखों में रात कटी, पौ फूट चली।

श्याम जी ने जाने क्या पढ़ा दिया था सबको कि अगले दिन डेरे पर लौटने पर, रात में ना लौटने के बारे में, किसी ने कोई सवाल नहीं किया। जल्दी जल्दी तैयार हो कर पहुँच गए साऊथ ब्लॉक स्थित विदेश मंत्रालय के ऑफिस। यहाँ भी लाट साहब का रूक्का तो जो काम आना था वह तो आया ही, श्याम जी के खुशदिल और चुलबुले अंदाज़ ने मिलते ही मंत्रालय के एस एन. पुरी और तलवार साहब के दिल जीत लिए। उसके बाद आनन फानन में पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और ईरानी दूतावासों से ग्रैटिस वीसा इश्यू करने के सरकारी अनुरोध-पत्र हमारे तरकश में सज गए।
अफ़ग़ानिस्तान और ईरान के दूतावासों ने हमें हाथो हाथ लिया, झटपट वीसा ठोंक कर पासपोर्ट हमारे हवाले कर दिए। लेकिन पाकिस्तानी दूतावास में ना तो हमारे तीर चले और ना तुक्के। कई दिन दौड़ाने के बाद कुछ पसीजे भी तो सादा-सीधा टूरिस्ट वीसा देने तक ही राज़ी हुए, खैबर दर्रे के रास्ते मोटर साईकिल से जाने के लिए ज़रूरी 'ट्रांज़िट वीसा' कितनी ही फ़रियाद और हुज्जत के बाद भी नहीं ही दिया।जब पाकिस्तान के रास्ते नहीं जा सकते तो आगे के अफ़ग़ानिस्तान वगैरह हमारी मोटर साईकिल उड़ कर तो जाती नहीं। हमारे मंसूबों की लहलहाती फसल पर पाला पड़ गया।

मुंह लटकाए डेरे पर आए, श्याम सहित कोई किसी से नहीं बोला, चुपचाप बोरिया-बिस्तर समेट कर अगली वाली गाडी से लखनऊ चले आए। लूडो के खेल की तरह जल्दी जल्दी सीढ़ी चढ़ कर ऊपर तक तो आसानी से चढ़ गए लेकिन तब तक सर्पराज ने गटक कर पहुंचा दिया सबसे नीचे के पायदान पर, जहां से चले थे वहीँ।

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