अफ़ग़ानिस्तान १: मानेगा नहीं !!
थाह नहीं मिलती ज़िंदगी की पहेलियों की, जाने कब क्या कैसी होनी हो जाए।
एकबारगी तबीयत कुलबुलाने लगी अफ़ग़ानिस्तान के सफर के दास्तान सबसे साझा करने की। इसी नीयत से आलमारी में धरी उसकी ज़िल्द की धूल झाड़ कर पलटने लगा तो हैरान रह गया उसे लिखने की शुरूआती तारीख - ९ अप्रैल १९७७ - देख कर। यानी अब से ठीक इकतालीस बरस पहले इसी दरमियान इसे लिखना शुरू किया था। जाने कैसे इतने अरसे बाद अपने मिज़ाज़ की कुदरती घडी का एलार्म उसी वक्त की नोक पर आ कर टुनटुनाए जा रहा है।
यह सोच कर कि लगता है क्लासीफाइड दस्तावेज़ों को सामने लाने की मुक़र्रर साइत अब आ ही गयी है, आहिस्ता-आहिस्ता किश्तों में शुरू करता हूँ, उन्हें याद करते हुए जिनकी बदौलत इस सफर का जुगाड़ बना। इस दुनिया से बहुत दूर कर जहां कहीं भी होंगे हँसते हुए यही कह रहे होंगे - किसी ना किसी बहाने से लिखे बिना मानेगा नहीं ये !! ----
वे थे मेरे जिगरी दोस्त और अपने आप में निराले इंसान। कांच खा लेते, तेज़ाब पी जाते, फ़ुटबाल के तीन-चार ब्लैडरों में एक साथ तब तक नथुनों से हवा भरते जब तक भड़ाम ना हो जाएं, सीने पर से जीप गुजरवा लेते और सोलह पौंड वाला लोहे का गोला झेल जाते। और भी जाने क्या क्या, जिनकी वजह से हमजोलियों ने कालेज के दिनों में ही मस्तमौला 'श्याम' से बदल कर उनका नाम 'आइरन मैन' रख दिया। अपने करतब दिखलाने के चक्कर में अफ़ग़ानिस्तान-ईरान जाने के उनके मंसूबे सुन कर मेरे जेहन में बुज़कशी का खेल, उत्तरापथ /रेशम मार्ग से गुज़रते कारवां, काबुल-कंदहार, हिन्दूकुश और आमू दरया, जैग्रोस-एलबुर्ज़ जितना जानते रहे सब चक्कर मारने लगे। बोल पड़ा -
"अरे वाह ! अकेले कैसे जाओगे ? मैं भी चलूँगा।"
"हुकुम करो। बिलकुल ले चलेंगे।"
"मोटर साइकिल से चलो तो और भी अच्छा रहेगा। रास्ते में रावलपिंडी के पास तुमहार पुश्तैनी ठिकाना और उससे आगे खैबर दर्रा भी देखते चलेंगे"
थोड़ा ना नू करते 'पुश्तैनी ठिकाने' वाले चारे में फंस कर उसके लिए भी राज़ी हो गए। तब मुझे आगे की लग पड़ी -
"मगर मेरा पासपोर्ट ?"
"फिकिर काहे की ! मैं अभी ज़िंदा हूँ।"
उस ज़माने के सूबे के लाट साहब से उनके घरेलू ताल्लुकात के चलते उनके मुहर लगे रुक्के की बदौलत पासपोर्ट घर बैठे हाथ आ गया।
"हुकुम करो। बिलकुल ले चलेंगे।"
"मोटर साइकिल से चलो तो और भी अच्छा रहेगा। रास्ते में रावलपिंडी के पास तुमहार पुश्तैनी ठिकाना और उससे आगे खैबर दर्रा भी देखते चलेंगे"
थोड़ा ना नू करते 'पुश्तैनी ठिकाने' वाले चारे में फंस कर उसके लिए भी राज़ी हो गए। तब मुझे आगे की लग पड़ी -
"मगर मेरा पासपोर्ट ?"
"फिकिर काहे की ! मैं अभी ज़िंदा हूँ।"
उस ज़माने के सूबे के लाट साहब से उनके घरेलू ताल्लुकात के चलते उनके मुहर लगे रुक्के की बदौलत पासपोर्ट घर बैठे हाथ आ गया।
फिर क्या था, उछाह भरे उछल चले वीसा लेने दिल्ली की ओर।
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