उन्हें ही कोसेंगे इसके लिए भी ?????
अरसे से सुनते रहे सरकारी महकमों में व्याप्त भारी भ्रष्टाचार के बारे में, सड़क नाली नगर नियोजन सब बेमशरफ़ होने के बारे में, बरसात में जलभराव, गर्मी में छाया नहीं, वातावरण पॉल्यूटेड, वगैरह वगैरह।
सेवानिवृत्त हो कर टिक कर रहने पर करने को कुछ ख़ास रहा नहीं तो सुबह शाम जब तक मोहल्ले में सैर पर निकलने लगे और देखा मोहल्ले के समुचित नियोजन के तहत हर सेक्टर में पार्कों की व्यवस्था, सड़क किनारे तरतीब से लगाए गए पेड़, आस-पास के सुधी निवासियों के प्रयास से कुछ पार्कों में खासी हरियाली और टहलने के लिए ट्रैक का सराहनीय रख रखाव। सुबह शाम पेड़ों पर चिड़ियों की चहचहाहट चित्त काया चैतन्य कर देतीं। हवा के झोंकों से बसी सप्तपर्णी पर लदे फूलों की गमक के बीच टहलता गुनगुनाता -
संझा शरद सुहावन आये, गाढ़े मधुर मधुर मधुराय,
फूलै धवल राग गहराये, मादक सत-पर्णी मुस्काय।
फूलै धवल राग गहराये, मादक सत-पर्णी मुस्काय।
सोचता कुछ बरसों में बढ़ती हरियाली बरहों मास शुद्ध हवा गर्मियों में छाया देने लगेगी और लुप्त होती चिड़ियों की तादाद भी और बढ़ जाएगी। तब समझ में आया सब कुछ बुरा ही नहीं हुआ है, नियोजन और वृक्षारोपण करने वाले भी सरकारी विभागों में काम करने वाले हमारे भाई बंद ही हैं, इन सकारात्मक कामों का श्रेय तो उन्हें मिलना ही चाहिए। लेकिन ये भाव धीरे धीरे दरकने लगे।
सरकारी विभागों के लोगों को जो करना है, अच्छा या खराब, करेंगे ही। हमें अपनी करनी के इन नमूनों पर ज्यादा गौर कर लेना चाहिए। एक पार्क के एक बगल की तकरीबन पूरी लम्बाई की बीस फ़ीट चौड़ी सरकारी जमीन उनसे लगे प्रतिष्ठित नामी गिरामी निवासियों द्वारा बाकायदा घेराबंदी करके कब्जियायी दिखी। कुछ पार्कों में मकानों के लिए लायी गयी गिट्टी-मोरंग-बालू या मलबों के ढेर और घरों से निकला कूड़ा सामने की नालियों में अंटा हुआ ------
और, सबसे ज्यादा बेरहमी दिखी हरे पेड़ों को ले कर। इस सिलसिले में एक ही उदाहरण काफी होगा - एक हरे भरे पेड़ को ले कर अलग अलग लोगों के अपने ही नज़रिए सुनने को मिले - गर्मियों में धूप के ताप से बचने के लिए लोग बैठक लगाते और उसकी छाया पड़ोस के ब च्चे खेलते रहते, इस सबसे बगल के घर के रखवाले के आराम में खलल पड़ता। एक साहब पेड़ की छाया में अपना वाहन खड़ा करते तो उसकी डालियाँ उससे टकराने लगतीं, एक दिन उन्होंने यह बात कही। उधर पास में ही झोंपड़-पट्टी में रह रहे कुछ लोगों को जलावन की जरूरत थी । यूं तो इस पेड़ की कुछ शाखाएं बरसात के पहले छांट कर दोनों समस्याओं का निदान आसानी से हो जाता, बरसात आते ही फिर से हरिया जाता लेकिन बगल वाले के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था, कांट छांट पर लगने वाला पैसा बचाने और समस्या के समूल नाश के लिए उसने झोंपड़ पट्टी वालों के साथ नायाब प्लान बनाया।
एक सुबह जब तक लोग ठीक से जागते हरा-भरा पेड़ ठूंठ में तब्दील करा दिया गया, मोटी मोटी शाखाएं जलावन बन गयीं बिना किसी लागत के !! लोगों की पूंछाताछी पर दोष मढ़ दिया - 'वाहन स्वामी पर कि उनके कहने पर कटवाया है', और वाहन मालिक बोले - ऐसा काटने को तो नहीं कहा था।बेचारी निरीह चिड़ियाँ चीं चीं करती देर तक सुबकती रहीं ठूँठे पेड़ के इर्द गिर्द, नंगे तारों पर बदहवास। सूने उदास पेड़ का विषाद-विलाप किसी ने नहीं सुना, काठ हो चुकी संवेदनाओं के चलते। आते जाते ठूंठ पर पड़ती हर नज़र भीतर तक एक तीखी टीस कचोट जाती है। लेकिन इससे किसी को क्या लेना देना ?
ऐसी की तैसी वृक्षारोपड़, हरियाली, गौरैया बचाने, बायो-डायवर्सिटी संजोने, आक्सीजन बढ़ाने, पॉल्यूशन मिटाने जैसे अभियानों, और हरे छायादार पेड़ कटवाने के लिए बने नियमों-कानूनों की !!!
पानी पी-पी कर जिन सरकारी विभागों को हम हर दिन हर मौके पर कोसते रहते हैं, क्या उन्हें ही कोसेंगे इस दुर्दशा के लिए भी ?????
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