'राग दरबारी' के बहाने'
असलहा बाबू का ठिकाना तलाशता कचहरी में भटक रहा था जब जेब में फंसा फोन कुनकुनाया।
उधर से निरुपम जी के बोल सुन पड़े - '18 मार्च को लखनऊ में रहेंगे ? 'रागदरबारी' के प्रकाशन के पचास बरस पूरे होने पर 'राजकमल प्रकाशन' उस दिन 'बतकही' का आयोजन कर रहा है। दरबार और लेखक दोनों से आपके वास्ते के मद्देनज़र आपकी भागीदारी प्रासंगिक रहेगी।'
तुरत ही सहमति जताते 'रागदरबारी' के लेखक 'श्रीलाल जी' का मुस्कुराता हुआ चेहरा याद आ गया। दशकों पहले एक शादी में उनका अभिवादन करते ही मेरे हाथ में थमी राईफल देख मेरी और लपके - "ये हुई ना मर्दों वाली बात।" फिर राईफल का निरिक्षण परिक्षण करके बोले - "तीन सौ पन्द्रह ब्वार की जगह तीन-सौ-पचहत्तर मैगनम होत तो औरौ रोआब रहत।'
श्रीलाल जी के अस्सी बरस पूरा होने के उपलक्ष्य में आयोजित 'अमृत महोत्सव' के अंतर्गत 'नामवर सिंह जी' के सम्पादन में प्रकाशित 'श्रीलाल शुक्ल: जीवन ही जीवन' में स्वयं शुक्ल जी के सुझाए लेखकों में शामिल होने का दुर्लभ आशीर्वाद मुझे भी मिला। उनसे जुड़े और भी अनेक प्रसंग याद आते गए इसलिए 'बतकही' में भागीदारी का बुलउआ पा कर मन उमगने लगा। सोचने लगा उनके चलते अपनी भी कुछ पूँछ हो गयी।
'बतकही' के लिए तैयारी करते समय घबराया भी, वहां तो बड़े-बड़े जमे हुए साहित्यकार मनीषियों का जुटान होगा उनके अंगना में ई भकुआ का करेगा। लेकिन यह सब तो हँकारी सुनकर हुंकारी भरते समय सोचना था अब तो भागीदारी करने से बच नहीं सकते।
फिर सोचा, कल की कल देखा जाएगा - कैसा और क्या-क्या भाख-बूक पाएंगे। फिलहाल इसी बहाने 'शुक्ल जी' का सादर स्मरण करते हुए 'श्रीलाल शुक्ल: जीवन ही जीवन' में प्रकाशित अपना लेख - 'इंडोलॉजी और श्रीलाल जी'- चेंप रहा हूँ, पढ़ कर परखिए कहाँ ठहरता है।
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