'बनारस के बनरसै रहै द्या !!!'
बात का सिरा जुड़ता है बीस बरस पहले के एक वाकये से। वह वाकया जितना पुराना होता जा रहा है उतनी ही बढ़ती जा रही है उसकी प्रासांगिकता।
दो दशकों से कुछ ऊपर निकले, किसी सिलसिले में बनारस जाने पर, भारत कला भवन के तत्कालीन निदेशक डाक्टर आर.सी. शर्मा ने वहाँ आयोजित 'पर्यटन की दृष्टि से बनारस के विकास' विषयक अन्तर्रष्ट्रीय परिसंवाद में बिठा लिया। विश्व विद्यालय, नगर, देश-विदेश और सरकारी महकमों के प्रतिनिधि इसमें भागीदार रहे। अलट-पलट कर पश्चिमी देशों के तर्ज़ पर होटलों के निर्माण, सड़कों के चौड़ीकरण और आमदनी में बढ़ोत्त्तरी जैसी बातों पर बढ़ चढ़ कर चल रही चर्चा के बीच अचानक शर्मा जी ने मेरा नाम पुकार कर अपने विचार रखने के लिए पुकार दिया। मेरे लिए यह बिलकुल अप्रत्याशित रहा, अब क्या बोलूं सोचता हुआ माइक तक पहुँच कर अचकचाते हुए बोल गया - "बनारस के बनरसै रहै द्या !!!"
बोल कर सोचने लगा यह क्या किया, विशेषज्ञों की सभा में भोजपुरी, लेकिन अब सोच कर करते भी क्या मुंह से निकले बोल और तीर लौट तो सकते नहीं। ताज्जुब तब हुआ जब तनिक देर के सन्नाटे के बाद बनारसियों में हलचल सी मची और डाक्टर आनंद कृष्ण सहित पुरान बनरसियों की आँखों में कौंधती चमक ने आगे उसी ले में बोलते जाने का हौंसला बढ़ाया -
"बनारस आवैं लें लोग बनारस देखै, कबीर दास की ज्यों की त्यों धार दीन्ही चदरिया कै ताना-बाना बूझै, इहाँ बहै वाली ज्ञान गंगा में नहावै बदे। फाइव स्टार होटल में रहै औ मौज मनावै नहिनी। एकर प्रवाह अपना नया नया रूप बदलत जस बाढ़त चलल जात बा वैसेही चलै द्या। विकास औ सुविधा, जउन कुछ करै के होय बनारस से दू चार किलोमीटर दूरै रहै तब्बै ठीक रही। कबीर चौरा वाली प्रभात फेरी चलत रही तब्बै न बनारस बनारस बुझाई ----------------------"
जो आया मुंह में बोलता गया। विराम लेते ही सभा में हलचल मच गयी। विदेशी प्रतिनिधि अगल बगल देखते यह जानने को आतुर दिखे कि आखिर ऐसा क्या बोल गया यह। उन्हें अंग्रेजी में समझाया गया तो कार्यक्रम के बाद भी वे तरह तरह के सवालों से घेरे रहे। पर्यटन के नज़रिए से बनारस के विकास के लिए आज तक जोर शोर से जारी प्रयास इस विषय को भभकाए हुए हैं। तरह तरह के विचार और सरोकार जुड़े हुए हैं इस तीरथ नगरी के 'पर्यटन' से।
१९७३ में बनारस पढ़ने गया तो अक्सर रात में अँधेरा गढ़ाने तक घाट पर बैठ कर शान्त बहती गंग और इक्का दुकका आते जाते या अपनी तरह बैठे लोगों को निहारा करता। गलियों में टहलते हुए, हाल ही में प्रकशित 'गली आगे मुड़ती है' की छवियाँ पकड़ने की कोशिश करता। एक सिरे से दूसरे सिरे तक घाट के सोपानों पर हिलती डुलती लौ वाली टिमटिमाती दीप-मालाओं की नयनाभिराम दृश्यावली दर्शाती देव-दीपावली। स्टेशन से लहुराबीर, गोदौलिया, पक्का मोहाल से सोनारपुरा-मदनपुरा अस्सी हो कर लंका तक तब भी सड़कों पर अड़सा अड़सी चलती रही टुनटुनाती घंटियों वाले रिक्शों और तीर्थ-यात्रियों की। अब कहाँ रहा वैसा बनारस !!
बनरास कोई आज का बसा तो है नहीं। कम से कम तीन हजार बरस का इसका सिजरा तो जुट ही चुका है, उसके पहले क्या होता रहा यहाँ ? यह लाल बुझक्कड़ी पुरवाविद बूझैं, यहाँ तो बात बात चल रही है 'बनारस के बनारस रहै द्या' के आशय के विस्तार की। जब भी बसा बनारस तब्बै से दिनों दिन बदलतै रहा है बनारस। गाँव से महाग्राम, नगर से महानगर। छप्पर छाजन वाले बांस बल्ली वाले झोपड़ों से, कच्ची माटी की भीत वाले आवास, फिर ईंट पाथल वाले आए, साथ-साथ चले। कच्चे घाट पक्के हो गए कई मंजिला इमारतों के साथ। खेती किसानी से बढ़ कर, व्यापार, कला, दर्शन और धर्म, सनातन-जैन-बौद्ध-कबीर-रैदास-सिख-इस्लाम सब का केंद्र। नए नए रंगों वाला सतत परिवर्तनशील। फिर क्या मतलब है यह कहने का - 'बनारस के बनारस रहै द्या'।
१९९० के आस-पास हमें बनारस की 'पञ्च-कोशी परिक्रमा मार्ग' के विकास पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत करने का हुकुम हुआ। बनारस के पास पिंडरा गाँव के मूल निवासी गिरीश जी के साथ इस मार्ग की परिकरमा करके, उस पर नंगे पाँव पैदल चलने वाले संकल्पित तीर्थ यात्रियों के अनुभवों से समझा कि - परिकरमा मार्ग का कमसे काम आधा हिस्सा नंगे पैर चलने वालों के लिए कच्चा रखा जाना चाहिए, मार्ग के साथ थोड़ी थोड़ी दूरी पर बनी पुरानी धरमशालाओं को उनके मूल रूप में संरक्षित रखते हुए पीने के पानी और निपटने-नहाने की समुचित व्यवस्था होनी चिहिए, और आरी-आरी छायादार पेड़ों का रोपड़ करके अगल बगल नए निर्माण रोक दिए जाएं तो क्या ही कहने।
समय के साथ साथ बनारस के बदलते परिदृश्य देखने के मौके मिलते रहे। 'शान्त देव दीपावली' का ऐसा प्रचार प्रसार हुआ कि घाट पर लगी 'हाई मास्ट' आँख फोड़ू भोंडी रौशनी की चकाचौंध ने रात चौपट की और कानफोड़ू आतिशबाज़ी और आयोजनों से वातावरण को गुंजायमान करके देवताओं को ही वहाँ आने से रोक दिया। गंगा आरती का एक ऐसा आयोजन किया जाने लगा जो पहली बार देखने वालों को मोह कर उससे होने वाले प्रदूषण की सोचने ही नहीं देता। गंगा-जल की स्वक्षता का स्तर ऊपर चढ़ते चढ़ते जलसमाधि लेने की प्रतिज्ञा करने वालों की नाक के ऊपर चढ़ रहा है। उधर डामर की सड़क में तब्दील 'पञ्च कोशी परिकरमा मारग' पर नंगे पाँव चलने वालों की पाँव में छाले न पड़ें तो निश्चय ही साक्षात भोले बाबा की किरपा ही होगी। ऐसे और भी उदाहरण दिए जा सकते हैं लेकिन सुविज्ञों के लिए थोड़ा कहना बहुत समझना होगा और जिन्हें नहीं समझना उनके आगे का बीन बजाना।
बनारस जाग्रत तीर्थ, रम्य नगर, सर्व विद्याओं की राजधानी है, जड़ बना कर जस का तस तो रखा ही नहीं जा सकता। जनसँख्या विस्फोट, उसी अनुपात में चौपहिया वाहनों में गुणात्मक वृद्धि, अन्नत आर्थिक दौड़ आदि की पृष्ठभूमि में यह मसला विकट से विकटतम ही होता जा रहा है। बनारस को बनारस बनाए रखने के लिए जरूरी है यहां की मौलिक सांस्कृतिक परम्पराओं को मूल से जोड़े रख कर उनमें सोचे समझे रंगों के सन्निवेश के साथ आगे बढ़ना। उसके मूल परिदृश्य को यथावत संजोते हुए आधुनिक सुविधाओं का समावेश। तीरथ और पर्यटन का घाल-मेल किए बिना 'तीर्थ-यात्रियों', पर्यटकों, कलाकारों, शिक्षाविदों आदि के लिए, यहाँ आने वालों के मूल उद्देश्यों की प्रकृति को ध्यान में रख कर, अलग अलग उपाय। साफ़ सफाई, ट्राफिक कंट्रोल, बसावट पर लगाम, विनियमन वगैरह।आर्थिक दृष्टि से अधिकाधिक अर्जन के लिए सोने के अंडे देने वाली मुर्गी के सारे अंडे एक बार में निकलने की गलती नहीं करने, सबसे बड़ी तादाद में आने वाले लाखों लाख 'श्रद्धालु तीर्थ यात्रियों' और जनता-जनार्दन की पारम्परकि आनुष्ठानिक जरूरतों को सिर-माथे धरने की, और सबसे बढ़ कर मसाने में होली रमाए रहने की।
-----------
फोटो १: varanasi-the-holy-city-of-india/ साभार
फोटो १: varanasi-the-holy-city-of-india/ साभार
फोटो २. jonathan-clark साभार
No comments:
Post a Comment