Thursday, June 18, 2015

पवन ऐसा डोलै : अध्याय २. ६

६. कचौड़ी गली सून कइला, हो बलमू - अ -अ


पहाड़ी ढलान पर घूमती ऊपर चढ़ती सड़क जलेबिया मोड़ की चकरिया पार होते नीचे का मनोरम नज़ारा दूर तक उभर आया। नीला छितिज, भूरे पहाड़, रुपहला जल-विस्तार, हरियाली सतह के बीच छितरे भूरे ललछट खेत, छोटे दीखते मकानों वाली बसावट, ऊपर छाए बादल, भीना-झीना ओदा-ओदा माहौल। घूम टहल कर देर तक देखते रहे प्रकृति के रम्य रूप। सोचते रहे कुदरत भी कैसे कैसे सुंदर रूप धरती और बदलती रहती है, सुबह-ओ-शाम, रात-ओ-दिन, जाते-आते मौसम के साथ। यही वादी जाड़ों में कोहरे में  झांकती दिखती है, कंपकपी जगाती, गर्मियों में ताप से तपती सूखी भूरी लाल सतह के बीच आँखें जुड़ाते चमचम करते बंधे का जल तल पर तारी तरल गुलाबी परत।  


चढ़ाई के ऊपर औसतन सपाट सतह पर अगल बगल के छितरे गाछ वाले वनों  बीच से गुजरते सुकुरुत नामक ठिकाने पर लगी वाहनों  की कतार में हमारा वाहन भी ठहर गया। सामने की छप्पर छायी दुकानों में चाय-समोसा और सबसे बढ़ कर गुलाब-जामुन की मांग सुन पड़ी। महाजनों के रास्ते चल कर हमने भी दो चार उदरस्थ किये तो चैतन्य काया आस-पास तजबीजने लगा।  लबे सड़क लगे नाम-पट्ट पर लिखे जगह के नाम पर निगाह पड़ी तो पता चला इस ठीहे का असल नाम, 'सुकुरुत' नहीं, 'सुकृत' अर्थात सुन्दर रचित - जिसे सुंदरता से रचा गया हो। यथा नामे तथा गुणे को साछात कराता यह नाम इस जगह के लिए जिसने भी चुना वह भी शायद हमारी तरह यहां के प्राकृतिक सौंदर्य पर रीझ गया होगा।  

नाश्ता-पानी के  बाद  कुछ दूर लिखनिया वाले रास्ते पर लौट कर  छातो के पास से बाएं पैंडे पर घूम गए। कुछ ही फासले पर चट्टानों के बीच भलभलाती भल्दरिया दरी की धारा के आर-पार भी लिखनिया और विंढम जैसा सैलानियों का हंगामा। मंदिर के पास डेरा जमाया, हमारी टोली की भी दाल-बाटी चुरने-पकने लगी।  कुछ साथी गाने बजाने में और कुछ गमछा लपेटे मगन हो गए नहाने में।  


थोड़ी मेहनत के बाद आखिर चढ़ ही गए उस खोह तक।  खोह की अंदरुनी सतह पर गेरू से उकेरित आखेटकों द्वारा चारों ओर से घेर कर मारा जा रहा आहात विशाल वराह, दरद के मारे खुले उसके मुंह में दीखते दांत, उसके नीचे एक हरिण के सामने से उसके सीने में भाला घोंपते आखेटक का चित्रण, आस पास छोटी छोटी अनेक मानव आकृतियाँ।  सबसे नीचे एक सिरे पर गेरुए रंग से बड़े बड़े अंग्रेजी आखर में लिखा नाम - J. Cockburn । अभय ने देखते ही पूछा - ई केकर नाम हौ हो ? 
हमारे दूसरे साथी ने कहा कि यह नाम भी अपने आप में बड़ी कहानी छुपाए है तो वे एका एक अविश्वास से देखते रहे फिर बोले - 'तोके कैसे मालुम ? ओ मलुमै हौ तो बतावा।' 


दूबे जी तफ़सील से बताने लगे - 'इसके बारे में हमने यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में पढ़ा है। अँगरेज़वन में और तो जो रहा हो एक बहुत बड़ी खूबी रही। दुनिया वहाँ की एक एक बात सोरे में हलि के ओकरे बिसय में जानै में कवनो कोर कसर नाहीं रखलें। चाणक्य के चेलवा चन्द्रगुप्त और ओकर राजधानी पाटलिपुत्र के नाम रहा हो या चन्द्रगुप्त के पौत्र अशोक से लगायत चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के लेख, हज़ारन बरस बाद चीन्ह-परख  कै के पढ़ै के बूता ओनहिन कै रहा। काकबरनवौ अइसनै एक ठे अँगरेज़ रहा, मुलाजिम तो रहा अफीम महकमे में, ना जाने कवने काज से १८८१ में मिर्ज़ापुर के इलाइके में आइल तौ इहां कै खोह-कंदरा के ई कुल लेखा-लेखानी देखत गुनत अपनौ नाम इहां लिख देहलस, अब एतना बरस बाद एके एक ऐतिहासिक दस्तावेजै गइल हौ।'

दूबे जी के ज्ञान का लोहा हम सब मानते रहे सो उन्होंने जो कुछ बताया हमने ब्रह्म ब्रह्म वचन सम ग्रहण किया।  

खोह से उतर कर मंदिर वाले ठिकाने पर पहुंचे तो सब भोजन-पानी तर तयार मिला। इत्मीनान से खा पीकर, हांडी पटकी एक ओर, पत्तल फटके एक कोने, और मस्ती में लौट पड़े बनारस की ओर। 

उधर टेप रिकॉर्डर पर एक लोक गायिका के सुर लहराने लगे -

कचौड़ी गली सून कइला, हो बलमू - अ -अ ,
ओ -अ-अ, मिरज़ापुर गुलजार कइला-अ-अ, हो बलमू-अ-अ-अ -----


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कल की कल  

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