पशुओं-पौधों का पालतू बना आदमी
पीठ पर पिठ्ठू, हाथ में गैंती, तरंगित अंतरमन और उड़ते हुए से कदम। निकल पड़े पेशेवराना अंदाज़ में कुछ नया खोजने की चाहत समेटे।
पहले दिन पछाँह की सड़क पर चलते हुए पहुंचे लूसा गांव। गाँव में एक पेड़ के नीचे खंडित मूर्तियों और पिण्डियों के साथ पूजे जा रहे एक ख़ास तरह के पत्थर के उपकरण देखते ही काया उमग उठी। पढ़ते समय अपने विभाग के म्यूज़ियम में और फिर पलामू जिले के सर्वे के दौरान ऐसे उपकरण पहले भी परख चुका था। गाँव वाले इन्हे दिव्य मान कर पूजने के अलावा रोग-व्याधि दूर करने के लिए इन्हे पानी से धो कर उसी पानी को पीते भी हैं।
एक ओर कुछ साथी मूर्तियों का लेखा दर्ज करने और अक्श उतारने में लगे, दूसरी ओर हमने गाँव वालों की मनौनी करके नज़र में चढ़े उपकरण झोलों में भर लिए।
फिर, गाँव की उत्तर दिशा के पथरीले इलाके में एक जगह बिखरे लघु पाषाण उपकरणों वाला ख़ित्ता देख वहीं ठहर कर उन्हें परखने और चयनित उपकरण दूसरी झोली के हवाले करने लगे तो साथ चल रहे कामगारों ने कौतुक के साथ कहा - 'ई बुढ़िया के दांत काहे बीनत-बटोरत हौवा, पहाड़ियन पर सगरो बिखरल हवें।'
अब तक मेरे हाव भाव पर गौर कर रहे अभय ने लौटते समय पूछा - 'सब केहू तो मूरत पहिचाने में लगल रहलें, बकी तोके ई पथरै मिलल बटोरे के। कुछ तौ खासियत होबै करी एन्हनौ में।'
दूबे जी और दूसरे साथियों के चेहरों पर भी जिज्ञासा उभर आई।
डेरे पर चल कर आराम से बताने की कह कर साइकिल के पाईडल पर पैर दबा दिए।
ठिकाने पर पहुँच कर हाथ पाँव धो कर तनिक थिर हो कर बैठे तो पहली झोली में बटोरे उपकरण फैलाकर अपनी जानकारी की चोटी खोलनी शुरू की -
'पत्थर पर बनी कुल्हाड़ियों की बनावट इलाहाबाद जिले के कोल्डिहवा गाँव के पास इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के शर्मा जी द्वारा करायी गयी खुदाई में मिले उपकरणों से मिलती जुलती है जिन्हे 'स्टोन सेल्ट्स विध राउंडेड बट' का नाम दिया गया है। लेकिन आकार में हमारे उपकरण पहली नज़र में ही उनसे कई गुना बड़े लगे। आम तौर पर ऐसे उपकरणों को खेती के शुरूआती दौर और मोटा-मोटी सात-आठ हज़ार बरस तक पुराना माना जाता है। कहते हैं इन्हे बनाने वाले अनाज उपजाने और जानवरों को पालने के चक्कर में एक जगह रुक कर गांवों में रहने लगे थे। और यह भी, कि, इन्हे लकड़ी के हत्थों में बाँध कर जड़-मूल आदि वनस्पतियों को काटने-छीलने या दुश्मनों पर हमला करने के काम में लाया जाता रहा होगा। कालांतर में इनकी नक़ल पर ताम्बे और लोहे की ऎसी ही कुल्हाड़ियाँ बनी। इन्ही से विकसित हुआ परशु संभालने वाले परशुराम को कौन नहीं जानता।'
त्रिकोणीय और अर्ध चंद्राकार या अंगूठे जैसे सिरे वाले उपकरणों को छांट कर समझाने लगा - 'अरे ये, ये तो पत्थर की कुल्हाड़ियों से भी हज़ारों बरस पहले बनने शुरू हुए। इनकी बनावट की बिना पर इन्हे कहते हैं - ट्राइएंगल, ट्रैपीज़, ल्यूनेट, और एंड स्क्रेपर वगैरह वगैरह। इनसे संयुक्त या कम्पोजिट टूल बनाए जाते थे।'
अजाने तकनीकी 'जारगन' की भरमार से ऊब कर अभय कसमसाए - 'अब जियादा गियान ना बघारत जा। ई बताया कि एतना छोट-छोट पथरे के औजार कौने काम आवत रहे ?'
बहुत पोथी पढ़ चुके थे ऐसे उपकरणों की बनावट और उनसे जुड़ी सभ्यताओं पर लेकिन अभय, दूबे जी और कान लगाए सुन रहे दूसरे स्रोताओं को कैसे समझाया जाय यह सोचने में थोड़ा अटक गया। फिर किसी तरह अटक अटक कर इस तरह बताया कि -
'कम्पोजिट बनाने के लिए अर्धसचन्द्राकार अस्थियों या लकड़ी के भीतरी हिस्से में हल्का खांचा खरोंच कर उसमें पेड़ का लासा या गोंद भर कर उसमें नन्हे त्रिकोण उपकरण इस तरह फंसा दिए जाते थे कि पूरी किनारी आरी जैसी दााँतेदर बन जाती। और इस तरह बन जाती अनाज काटने वाली हंसिया। और अगर इन्ही उपकरणों को सीधी बांस की नोकीली डंडी में कायदे से फंसा दिया और डंडी के पीछे खांचा काट कर बाँध दिए चिड़िया के पंख, तो बन गए तीर, फिर क्या, बांस और तांत या रस्सी की डोरी से बने कमान पर चढा कर हेरने-मारने लगे आखेट ।
और, ये एक सिरे पर दांतेदार एंड स्क्रैपर खुरचनी की तरह इस्तेमाल किये जाते रहे होंगे - पेड़ की छाल निकालने या खाल काटने जैसे कामों के लिए।'
इस विवरण के बाद भी सुनने वालों को समझ नहीं आया तो रेखा-चित्र बना कर और साथ लायी किताबों में छपे फोटो दिखा कर समझाया, तब समझे तो सब के सब अचरज में पड़ गए।
अभय ने चुप्पी तोड़ी - 'तब तो बड़ा कारीगर रहे ओह ज़माने के मनइयौ। अउरौ कुछ बतावा ओन्हन के बारे में।'
'उस ज़माने तक के आदमी आज यहां कल वहाँ डेरा डालते, फंदा गोफना तीर-कमान से चिरई-अहेर मारते, फल फूल बटोरते भूंजते-खाते, नदी-नाला खोह-कंदरा में घूमते परम स्वतंत्र रहे। इन्हे 'हंटर-गैदरर स्टेज' की सभ्यता के आखिरी पायदान पर चल रहे परम निर्द्वंद होमो सापियन (आधुनिक मानव) माना जाता है। फिर. अनाज उपजाने और जानवर पालने की जानकारी पाने के बाद सालो-साल बीज बोने, उगाने, फसल रखाने-काटने-दवाने, सिरज-संभाल कर रखने, गाय गोरु चराने और गोठ बना कर रखने के गोरखधंधे में ऐसा उलझे कि अपनी सारी आज़ादी गंवा कर एक जगह खूंटा गाड़ कर गाँव बसा कर रहने लगे। इस तरह उनकी महीन तकनीकी कारीगरी और ज्ञान की बढ़ोत्तरी ने जहां उन्हें आगे बढ़ाया वहीं उनके पैरों में बेड़ियां भी डाल दीं।'
ध्यान से सुन रहे अभय ने अपना निष्कर्ष निकाला - 'अइसन कहा कि मनई अपने के चाहे जेतना अकलमंद समझले होई आखिर में तो जउने पगहा से गाय-गोरु कूकुर बन्हलस ओही में अपनौ बंधाय गइल, पेड़-पौधा बोवै बचावै में अपनौ अज़ादी बंधक भइल।'
मतलब आदमी ने पौधों और पशुओं को पालतू बनाया और उसी प्रक्रिया में स्वयं भी पशुओं और पौधों का पालतू बन गया।
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कल की कल
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