दुबका हुआ है आस का खरहा वहीं, चाँद गलता जा रहा,
रात होती जा रही कितनी घनी, दीपक टपकता जा रहा ।
अंटी में छुपी कौन सी वो थी जड़ी, सब खुलासा हो रहा,
हो गए भैया बड़े, जीजी बड़ी, उनका तमाशा चल रहा ।
आवाक सी है देखती जनता खडी, कैसे जमूरा छल रहा,
रास्ता दिखता नही मंज़िल कोई, बस एक नटवर दिख रहा।
तुमसे जो दावा किया था काज़ी, कागज़ कहीं वो उड़ गया,
काबिले बात रह गई किताबी, नावां ही सबकुछ हो गया।
भूल से भी आ गया मन्दिर कभी, बन देवता पुजवा रहा,
ले नाम जन-जन सब कही, बाज़ार में बेचा किया।
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