'सटकही स्लीपर'
सुबह की सैर पर चलते चलते घिसे तलुए वाली सटकती स्लीपर पर बार-बार सटकते देख सलाह मिली - ' फेंक दीजिए इसे !' फिर इस बाबत दरियाफ्त-मनुहार भी होती रही। सोचते रहे बात तो सही कही मगर बिना चोट खाए छूट जाए वो आदत ही कैसी।
दो दिन से एक 'घौलर-हवा वानर' छत पर उत्पात मचाने लगा। गमलों में लगे पौधे-भिंडी तहस नहस करने लगा। और तो और हिमाकत इतनी कि उनकी छाया में आराम भी फरमाने लगा। देख कर क्रोध में आकर आव देखा न ताव उसे भगाने लपका, भूल से वही वाली स्लीपर पहन कर।
आसन्न संकट से सजग ऊ तो छलांग लगा कर जा रहा इस छज्जे से उस छज्जे पर --- और इधर अपने राम दो ही कदम में फिसल कर ऐसा भहराए कि जगह-जगह धूस उठे, छटक कर दूर गिरी ऐनक का फ्रेम टेढ़ा हो गया, देह अब तक पिरा रही है सो अलग। भला भया जो बुढ़ापे में हाथ-पैर नहीं टूटे, बची-खुची कुदक्कई भी छूट जाती।
तब जा कर दोनों कान पकड़ कर सीख पाया - चिंता करने वालों की बात मान लेनी चाहिए। अब कैसे कहें कि इसी मूढ़-मंद-बुद्धि के चलते स्कूल में बहुतै संटी खाए हैं।
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