'बालू के घर बनाने !!'
खामोश चलते चलते, क़दमों से नाप आते,
हवाओं में जज़्ब रहते, बारिश में भीग आते।
मैदान हो या दरिया, सागर या कोई दर्रा,
मरू हो या हो हिमालय, सब घूम-घाम आते।
पोखर के पास बैठे, ख्यालों में डूब जाते,
बगिया हो वन कहीं भी, डेरा लगा के आते।
तट-धार तकते रहते, कश्ती में शाम ढलते,
धरती के कोने अंतरे, आँखों में भरते रहते।
कितनी गज़ब की नूरी ! कुदरत से बात करते,
उठती हुई गमक यूं सांसों में खींच लेते।
झरनों की झनझनाहट दूरी से गुनते रहते,
धुन माधुरी वो कैसी बँसवारियों में सुनत।
जिनसे जहां पे चाहे, उनसे वहीँ पे मिलते,
दिल में भरा हुआ जो, साझा उन्हीं से करते।
तारों भरे गगन में, गंगा नहा के आते,
जितनी भी आस होती, मनौती में मान आते।
दुनिया की सारी जिन्सें, मुट्ठी में भरते रहते,
सपनो में सब सहल है, बालू के घर बनाने !!
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Ravikesh Mishra'तारों भरे गगन में, गंगा नहा के आते....... वाह! आह्लादक चाह!
Satish Jainराकेश जी विश्वास करियेगा , प्रभु कृपा से आज भी सब कुछ वही कर पा रहा हूँ , जो जो आपने लिखा है , जिसकी कल्पना की है या भोगा है ।
Sheela RoyKavitae padhti hu., .toh lagta hai kitni saralta se shabdo kause kerte hai ki ek tasveer si bn jati hai.
Greeshm Sinhaमैदान हो या दरिया, सागर या कोई दर्रा.
मरु हो या हो हिमालय, सब घूम घाम आते.
Satish Jainमैनें save कर लिया ।
क्या उपमाएँ हैं …
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Satish Jain"" तलाशे यार ( प्रभू ) में छोड़ी ना सरजमींं कोई
हमारे पांव में चक्कर है आसमां की तरह ""
Greeshm SinhaSatish Jain सर धन्यवाद। रॉकी भाईसाहब के सान्निध्य में, जीवन के प्रारंभिक कुछ बरसों में, प्रकृति के इस उन्मुक्त थिएटर का आनंद प्राप्त करने का अवसर हुआ। सच मानिए वो खुमार कभी उतरा ही नहीं। सौभाग्य मेरा। वर्ष1979-80, तबतक इतनी भीडभाड़ नहीं हुई थी। चोपन
थाने के कैंपस में एक दूसरे के सामने मुंह किए हुए लगे तीन स्विस कैनवस कैंप, डेलीवेज पर तीन चौकीदार पांच लोकल गाइड, सभी आदिवासी, थाने की चहारदीवारी के बगल में मंथर गति से बहती सोननदी, और सुबह सुबह सूरज की रोशनी में वास्तव में सोने सी चमकती उसकी रेत, ढेर सारे सुरखाब पक्षी- इनके पंखों में लाल रंग की झलक आती है, सामने कैमूर पर्वत श्रेणी, बगल से उतरती मारकुंडी घाटी से आती सड़क, सामने दिखता सोन नदी पर बना चोपन कस्बे को जोड़ता पुल, जाडे़ की सुबहें और थाने के कुएँ पर खुले में स्नान, लकड़ी के चूल्हे पर सवेरे सवेरे बनता खाना, असीमित दूरियों वाली, कभी एक, कभी दो, कभी तीन और चार चार दिनों की पैदल यात्राएं, कभी खुले आसमान के नीचे, कभी गुफ़ाओं में तो कभी चित्रित शैलाश्रयों में सोना, जलते अलावों के सहारे रात गुजारना, झरनों पर नहाना खाना, पहाडिय़ों की ऊंचाई और खुली हवा में चांद और तारे सच में सिर्फ आपके लिए बनाए और बहुत नज़दीक लगते हैं, वो हवा की ताज़गी और तारों की चमक आज भी महसूस होती है। अनगिनत स्थानीय नदियों रेनु, बीजुल, कनहर को कभी घुटनों तो कभी गरदनों तक पानी में चलकर पार किया गया, अघोरी बिजयगढ़ के किले नापे गए, तमाम नये चित्रित शैलाश्रय तलाशे गये, जंगली जानवरों के बगल से गुजरे, कभी सामना भी हुआ, मंदिरों मजारों पर चढ़ाया हुआ चढ़ावा मिलबांट कर खाया, आदिवासियों के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाना और तीरकमान चलाना सीखा, देखा कि एकलव्य के आदिवासी वंशज आज अंगूठा होने पर भी अपने पूर्वज के सम्मान की रक्षा में तीर पकड़ने के लिए अंगूठे का प्रयोग नहीं करते। वे तीर को प्रत्यंचा पर खींचने के लिए तर्जनी और मध्यमा उंगली का प्रयोग करते हैं। रॉकी भाईसाहब की गंगायात्रा,हेमकुण्ड साहिब और अफगानिस्तान की कहानियां। राहुल सांस्कृत्यायन की यायावरीऔर देवकीनंदन खत्री का तिलिस्म। लोरिक की लोकगाथाएँ। जवानी की उम्र, मस्ती का आलम, और एक अजीब कल्पनाओं का संसार। घुमक्कड़ी और फक्कड़ी का नशा। पैसे न तो किसी की जेब में, और उन जंगल पहाड़ों में न उसकी कोई उपादेयता। सर, सब अद्भुत था। यह 22-23 वर्ष की आयु में घटित हुआ, और आज 64-65 वर्ष की आयु में सुबह ही हवा की महक सा ताजा है। अद्भुत।अनुपम।अनिर्वचनीय।
Satish JainGreeshm Sinha
""ले तो आए हो हमें सपनों के गाँव में"
Author Rakesh TewariGreeshm Sinha ग्रीष्म जी ! आपकी लेखन शैली बहुत प्रभावशाली और समृद्ध है। आप अपने संस्मरण भी लिख डालिए। मंगल कामनाओं सहित।
You're commenting as Rakesh Tewari.
Atul Kumar Sinhaतौफ़ीक़ काश होती, कुछ यूं भी कर गुजरते ।
कुछ घड़ियां रोक लेते ,फ़िर वक़्त पलट लाते।।
Satish Jainतिवारी जी !
सच्ची पून्छू ???
कोई एक चीज़ बताइये जो आप आज नही कर सकते …
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Author Rakesh Tewari'तारों भरे गगन में, गंगा नहा के आते,
जितनी भी आस होती, मनौती में मान आते।'
Sanjay GargParwaz-e takhayyul hai, socho to ye mumkin hai,
Be-sakhta, jadu hai, lafzon ka tilism hai.
JP Upadhyaya" Jitni bhi aas hoti , sab manauti maan aate " Kya kahien Wah !!!
बहुत प्यारी रचना है भैया����बारिश की पहली फुहार के आगमन पर ताज़गी भरी ये रचना मन को पुलकित कर देती है। कल्पनाओं का बहुत सुंदर आकाश सजाया है आपने इन मनोरम पंक्तियों में।��������
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