अप्रैल 1977
अफ़ग़ानिस्तान 6.5: 'आइडियल कम्पोजीशन'
(खत अभी जारी है )
(खत अभी जारी है )
मंज़िल से पहले ही हम बस से उतर कर अगल बगल आमने सामने का जायजा लेने की नीयत से, पैदल ही चल पड़े। नया मुल्क, नयी सरजमीं, नए उत्साह से भरे, बदलते मौसम के साथ।
अभी-अभी पिघल कर सरक चुकी बरफ से उबरे ठूंठ जैसे दरख्तों की खूबसूरत कतारें। नयी बहारों की दस्तक दे रहे खिलते फूल और कुछ शाखों पर फूटती नयी नरम नन्हीं कोपलें। काले-नीले-भूरे सपाट पहाड़ों पर कहीं कहीं बड़े बड़े मोती के मोटे मोटे मनकों या शीशे की झालरों जैसी लटकती बची खुश बरफ दिख जाती। बगल से हरहराता हुआ, पत्थरों में उलझता उछलता, दूधिया झाग उठाता, दोनों किनारों की हरियाली को गूंथता, तेज़ धार बहता उमगता दरिया का पानी। ढलान की हरियाली के बीच बीच से बह कर आती चमचमाती पतली धाराएं दरिया में समाती। बला का दिलकश नज़ारा । एक बाग़ में दिखती बुलन्द इमारतें, गाँव में बने ऊंचे नीचे मुकामी मकानात। लाल लाल सेब जैसे गालों वाले मासूम बच्चे। लम्बे चौड़े कद्दावर अफ़ग़ान, बाज वक्त दरया से पानी भरती मोहतरमाएँ। बाकी पसरा हुआ सन्नाटा।
पहाड़ी ढलान पर लपटती, ऊंची होती डगर पर गधों का कारवाँ। हम भी उसी रास्ते लग लिए। शर्मा मास्टर ने कारवाँ के साथ चल रहे अफ़ग़ान से जाने क्या तोड़ मोड़ कर बोला। उसने जवाब दिया - 'दर्रा-ई-पघमान'।
पहाड़ पर पड़ी बरफ अपनी ओर बुलाती लुभाती लगी। लगा थोड़ी ही देर में छु लूंगा, ठीक उसी तरह जैसे दूर ऊपर भेड़ चराने वाला बाचा उससे खेलता दिखा।
पहाड़ की चोटी पर अब भी दिख रही सख्त बरफ। काले भूरे घनेरे बादल रह रह कर घेरने लगे। बीच बीच में झीने होते तो खिलती धूप से उन पर रुपहली सुनहली चादर सज जाती। मन करता चलते जाओ, चलते जाओ, बेफिकिर, यहाँ के खानाबदोशों की माफ़िक।
पहाड़ की चोटी पर अब भी दिख रही सख्त बरफ। काले भूरे घनेरे बादल रह रह कर घेरने लगे। बीच बीच में झीने होते तो खिलती धूप से उन पर रुपहली सुनहली चादर सज जाती। मन करता चलते जाओ, चलते जाओ, बेफिकिर, यहाँ के खानाबदोशों की माफ़िक।
तब तक बादल टपा-टप टप-टपाने लगे। कहीं मुंह छुपाने की जगह नहीं। शर्मा मास्टर और सन्धू की पश्तो काम ना आयी। अफ़ग़ानों ने खारिजी (विदेशी) लोगों को दहलीज़ पार करने की इज़ाज़त नहीं दी, अंगुली उठा कर पघमान का रास्ता दिखा दिया। उधर बढ़ते हुए रास्ते के बगल के एक शेड के नीचे पनाह मिली जिसकी दीवार पर तफरीहन वहाँ आने वाले सैलानियों के कोयले से लिखे नाम दिखे। फाहे जैसी बरफ पत्ताते हुए धरती पर बिछने लगी।
थम कर बैठते ही तुम्हारी याद घुमड़ने लगी, साथ होते तो बताते काबुल क्यों बुझा बुझा लगता रहा और वहां की कुदरती खूबसूरती की गोद क्यों दीवाना बनाने लगी। सांसारिक सामजिक बंधन भी कैसे ----- कोई समझता क्यों नहीं हमारे मन के भाव ---- हमारे ज़ज़्बातों को ------ ।
बरफ थमने के बाद भी बूँदाबादी और चमचमाती बिजली की कड़कड़ाहट जारी रही। हम बरसते पानी में ही चल चले। मास्टर शर्मा जी यूं तो डर को कुछ नहीं समझते लेकिन घर परिवार की फिकिर में बिजली की कड़क के साथ सहम जाते। सन्धू चुप, बाकी सब भी चुप, इतनी चुप्पी हमारे चुहलबाज श्याम जी को तनिक भी रास नहीं आयी सो उन्होंने मनहूसियत भगाने की गरज़ से शर्मा जी से गाने की फरमाइश कर डाली। हमने भी इसरार किया। फिर शर्मा जी ने पूरे तरन्नुम में, वो बोल उठाए जो सारे हिन्द, अफ़ग़ानिस्तान, रूस और मध्य एशियाई मुल्कों के अलावा दूर दूर तक के लोग ज्जहूम झूम कर गाते हैं: -
"चलते जाएं हम सैलानी, जैसे इस दरिया का पानी।"
इन बोलों के लहराते ही सारी चुप्पी वाला माहौल हवा हो गया। अगली कड़ी के साथ हम सब ने भी उनके सुर में सुर मिलाया -
"खुली सड़क पर निकल पड़े हैं अपना सीना ताने।"
उत्साह से भर कर शर्मा जी और ऊंचे बोल में स्टाईलिश अंदाज़ में गाने लगे -
"मंज़िल कहाँ कहाँ जाना है ऊपर वाला जाने।"
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"मेरा जूता है जापानी, यह पतलून इंग्लिश्तानी,
सर पे लाल टोपी रूसी -----------------------"
इन बोलों के लहराते ही सारी चुप्पी वाला माहौल हवा हो गया। अगली कड़ी के साथ हम सब ने भी उनके सुर में सुर मिलाया -
"खुली सड़क पर निकल पड़े हैं अपना सीना ताने।"
उत्साह से भर कर शर्मा जी और ऊंचे बोल में स्टाईलिश अंदाज़ में गाने लगे -
"मंज़िल कहाँ कहाँ जाना है ऊपर वाला जाने।"
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"मेरा जूता है जापानी, यह पतलून इंग्लिश्तानी,
सर पे लाल टोपी रूसी -----------------------"
तब तक ऐसी जोरदार आवाज़ के साथ बिजली कड़की, मानो पूरा पहाड़ ही टूट पड़ा हो। सकपकाए हुए शर्मा मास्टर के बोल उसी में डूब गए, चेहरे पर सफेदी तैर गयी। सन्धू हंस पड़े तो शर्मा जी समझाने लगे - 'मेरे को अपनी नहीं तेरी फिकर है सन्धू, तेरे बाप से तेरी सलामती का वादा करके तुझे साथ जो लाया हूँ। फिर घर वालों की भी चिंता है, मुझे कुछ हो गया तो उनका क्या होगा।' फिर बताने लगे - 'एक बार ग्वालियर के पास लगे एन सी सी कैम्प में घुस आए तेंदुए को घेर कर स्टेन-गन से शूट कर चुका हूँ।"
हैं ना शर्मा जी मज़ेदार चीज़ !!!!!!
बातों बातों में बरसात थम गयी। पघमान करीब आने लगा। श्याम जी ने यादगारी तस्वीर उतारने के लिए झोले से कैमरा निकालते हुए हमें एक किनारे कतार में खड़े होने को कहा। मैंने अपनी जैकेट झटक कर दोबारा पहनी, शर्मा मास्टर ने अपनी टाई संभाल कर कोट की ऊपर वाली जेब में रूमाल सजाई और धूप वाली ऐनक चढ़ा कर दोनों जेबों में हाथ डाल कर पोज़ बनाया, श्याम जी ने बगल से गुज़र रहे दो दस्तारबन्द अफ़ग़ानों को इशारों से बुला कर दोनों बगल खड़ा कर के 'आइडियल कम्पोजीशन' तैयार कर लिया ।
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(खत अभी जारी है )
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