Monday, May 14, 2018

Rakesh Tewari
Published by Rakesh TewariMay 11 at 4:56pm
अप्रैल 1977
अफ़ग़ानिस्तान 6.2 : 'मुनरिया केकरे हाथे लागी !!'
(खत अभी ज़ारी है)
सुबह दिशा-मैदान के लिए ठिकाना तलाशने निकलने पर मन्दिर के पिछले बड़े दरवाज़े के पीछे एक कोने में साबका पड़ा थोड़ी सी आड़ में खुदे एक कुंआनुमा 'डग-आउट' से। उसके आर-पार धरे दो समानांतर पटरों पर किसी तरह बैठ कर निजात पाने का जुगाड़। तनिक सी भी गफलत हुई नहीं कि उसी में गिरने और लिपटने में कोर-कसर न रहे, फिर चीख-चिल्लाहट के बाद भी उस दोजख से निकालने वाला कोई किस्मत से ही आए।
निपट कर चलते वक्त ऊपर से थोड़ी सी मिटटी डालने का हिसाब। पहले तो घबराया फिर सब ठीक-ठाक रहा तो अपना ध्यान राजघाट (बनारस) की खुदाई में मिले करीबन दो हज़ार बरस पुराने गहरे राख, कूड़ा, टूटे-फूटे बर्तन, अल्लम-गल्लम भरे कुँओं की बनावट की ओर गया जिनमें से कुछ को अंदर से मिटटी के पके हुए बड़े-बड़े गोल छल्ले लगे होने की वजह से रिंग-वेल कहा गया है। सोचने लगा कहीं ऐसा तो नहीं कि पुराने ज़माने के नायाब वाशरूम ऐसे ही रहे हों और अफ़ग़ानिस्तान में अब भी इस्तेमाल हो रही यह तजबीज उन्ही के रवायती नमूने हों, इसलिए अगर वाज़िब तहकीकात के बाद इसकी तसदीक हो जाए तो कम-अस-कम इनमें से कुछ को बचा कर रखने के लिए आसार-ए-कदीमा के जिम्मे या बतौर नुमाइशी विरासत अजायबघर के घेरे में डाल देना बहुत बेहतर होगा।
लगे हाथ थोड़ी चहलकदमी करते आगे बढ़ने पर ऊपर बना एक स्कूल दिखा। मैदान को सड़क की तरफ से घेरती चहारदीवारी के इस्पाती फाटक के पास दिखी पत्थरों पर टिकी एक स्कूल-कर्मी का रात गुजारने का ठिकाना बानी एक टूटी टैक्सी, दो नलके, और अभी-अभी पिघली बर्फ की परत हटने के बाद हरिया रहे कुछ ठूंठ जैसे सूखे दरख्त। दाएं पहाड़ी ढलान पर मकान और पहाड़ की चोटी पर जापानियों की मदद से टीवी स्टेशन बनाने बाबत डाइनामाइट से उड़ाई जा रही चट्टानों का मलबा। स्कूली इमारत के सामने बच्चों के खेलने का इंतिज़ाम।
मन्दिर कमिटी ही निभाती है स्कूल चलाने की जिम्मेदारी। तालीम में शामिल हैं हिंदी, अंग्रेजी, पश्तो के साथ रामायण-गीता के कुछ सबक। पढ़ने पढ़ाने वाले दोनों हिंदू। एक स्कूल-मास्टर मिले, अमृतसर के बाशिंदे कद्दावर शर्मा जी, बहुत ही तेज़ तर्रार, उनके एक साथी भी मिले संधू जी, दोनों पैसा कमाने के फेर में अपने देश से निकल कर काबुल तो आ गए मगर आगे ईरान का वीसा न मिलने की वजह से यहीं अटक गए। गाँठ की रकम भी चुकने लगी तो मास्टरी पकड़ ली। यहाँ के वीसा की मियाद भी निकल गयी है लेकिन 'फिकिर-नॉट' जुर्माना भर कर निकल लेंगे।
डेरे की ओर चलते हुए ज़ेहन में यहाँ बार-बार सुनाई पड़ रहे कोह-ए-बाबा, कोह-ए-असमाई, सफ़ेद कोह, जैसे यहाँ के पहाड़ों के नाम में शामिल लफ़्ज़ 'कोह' को ले कर अपने देश का 'कोहबर' याद आने लगा। पता नहीं बड़े तुम जैसे बड़े-बड़े शहरों में रहने वालों ने 'कोहबर' नाम सुना भी है या नहीं, हमारे यहाँ तो हर कोई इससे वाकिफ मिलेगा। वह स्थान या घर जहाँ विवाह के समय कुल देवता स्थापित किए जाते हैं। ब्याह के समय घर के उस कमरे की पूर्वी दीवार पर, गोबर से लीप कर पिसी हल्दी और पिसे चावल के घोल से, चित्रकारी की जाती है उसे कहते हैं 'कोहबर'। ब्याह की रस्मों के तहत वर-वधू को यहाँ बैठा कर कोहबर-चित्रों के पूजन के समय चलती रहती है सखियों, सहेलियों, सालियों, सलहजों की छेड़-छाड़ और चुहल, गीतों के साथ -
'परथमहिं आहे सिब सासुर गेला, परथम रहल सकुचाय,
चलु सिब कोहबर हे।'
(पहले पहल ससुराल आए शिव सकुचाय रहे, चलो शिव जी कोहबर हे !!! )
एक गीत की लहरी थमते आँखें नचाती सैन मारती टोली दूसरी कड़ी उठाने लगती हैं -
कोहबर में अइलें राम इहो चारों भइया।
से हमनी के मोहलें परानवाँ हो लाल।
एक टक लागे सखी पलकों ना लागे
से भूले नाहीं तोतरी बचनवाँ हो लाल।
हँसी-हँसी पूछेली सारी से सरहज
से फेरू कब अइबऽ ससुरिया हो लाल।
तोहरो सुरतिया देखी जियरा लोभइलें
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'कोहबर' में चलने वाले हास-परिहास और कौतुक-पूर्ण खेल के कारण इसे 'कौतुक घर' और कमरा होने के कारण इसका उद्भव 'कोष्ठ' शब्द से माना जाता है किन्तु हमें लगता है इसका नाता उस काल से है जब हमारे पुरखे पहाड़ों में रहते और शैलाश्रयों में चित्र बनाते रहे। शायद तभी विवाह की रीतियों के अनुसार शैलाशय में देवी-देवताओं के चित्र बनाने और वहां वर-वधू को ले जा कर पूजा-पाठ औरअनुष्ठान कराने की परम्परा चल निकली होगी। कालांतर में जब गांव बस गए होंगे तब भी विवाह के समय वर-वधू को उन्ही पहाड़ों के शैलाश्रयों में ले जा कर पुरानी रीतियां निभायी जाती रही होंगी। उसके बाद किसी समय पहाड़ के लिए प्रयोग होने वाले फारसी भाषा के 'कोह' शब्द का प्रचलन होने पर ऐसे शैलाश्रयों को 'कोहबर' नाम से पुकारा गया होगा। आज भी कुछ चित्रित-शैलाश्रयों के लिए प्रयोग होने वाले, 'कोहबर', 'कोहबरवा', 'सीता जी की कोहबर' आदि, नाम इस ओर इशारा करते हैं। फिर, हमने पहाड़ जाने की परम्परा छोड़ कर अपने घरों के एक कमरे में ही इस रीति का पालन करते हुए उस परंपरा को बनाए रखा होगा। इसलिए, इस शब्द के उद्भव के बारे में अंतिम निर्णय भले ही भाषाविद करें, अंदाजे के तौर पर 'कोह' और 'वर' शब्दों के संयोग से 'कोहबर' शब्द के पैदा होने का तुक्का मारने का जी करता है।
अब तक तुम्हारे मन में आने लगा होगा - काबुल की कहानी बताते बताते जाने कहाँ बहकाने लगे। फिर भी, इससे सटी एक बात और जान लेना तुम्हारे लिए अच्छा होगा। और वह यह कि इसी 'कोहबर' में खेला जाता है हल्दी घोरे पानी भरे परात में मुनरी डाल कर उसे हेरने का खेला। दोनों में से जिसके हाथ लग जाए वह मुनरी, कहते हैं ओही का दबदबा चलता है, जिनगी भर। फिर न कहना कि समय रहते चेताया नहीं, अब ई बात दीगर हौ कि - मुनरिया केकरे हाथे लागी !!
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खत अभी ज़ारी है
फोटो : Tony Bates

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