'एक नज़र पूरब की ओर'
ब्रह्मदेश, सुवर्णभूमि, श्रीविजय, यवद्वीप, कंबुज, और चंपा जैसे प्राचीन देशों के नाम एकबारगी मनो-मष्तिष्क में घुमराने लगे, इस बार के गणतंत्र दिवस समारोह में दक्षिण पूर्व एशियायी देशों के दस राष्ट्राध्यक्षों के एक साथ भाग लेने की ख़बरों के साथ। इन देशों से हमारे कितने निकट सम्बन्ध रहे हैं, प्रायः हम इस बात की अनुभूति नहीं कर पाते। इस विषय में इतना ही जानना पर्याप्त होगा कि जून २०१४ में क़तर (दोहा) में आयोजित 'विश्व विरासत कमेटी' की बैठक में भाग लेने आए कम्बोडिआ (प्राचिन्न कंबुज) के एक प्रतिनिधि ने भारतीय राजनयिक रुचिरा कम्बोज का नाम सुनते ही 'कम्बोज' उपनाम का कारण जानने की जिज्ञासा व्यक्त की थी। उन्होंने यह ज़रूर सोचा होगा कि हो ना हो इस उपनाम का सम्बन्ध उनके देश से हो सकता है। उनकी इस जिज्ञासा में बड़ा दम है।
न जाने कितने भारतीय कम से काम दो हज़ार साल से बड़ी तादाद में धर्म प्रचार और व्यापार आदि के सिलसिले में दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में आते-जाते और स्थायी रूप से वहीँ बसते भी रहे हैं। इसके पहले भी ऐसे संबंधों के रहे होने के प्राचीन साक्ष्य भी धीरे धीरे मिलते जा रहे हैं। यही कारण है कि इन देशों मे प्रथम सहस्राब्दी ईस्वी और उसके बाद के हिन्दू और बौद्ध मंदिरों, संस्कृत अभिलेखों, भारतीय नामों, उत्सवों आदि की भरमार दिखती है। इनमें से बगान (म्यांमार), बोरोबुदुर (इंडोनेशिया), अंगकोर वाट (कम्बोडिया) और मी-सोन (वियतनाम) के प्रस्तर तथा ईंटों से बने भव्य मंदिरों की एक झलक पाने के लिए लाखों पर्यटकों का जमावड़ा रहता है। यहां यह बात सोचने वाली है कि यह आना-जाना भारत की ही तरफ से एक तरफ़ा तो हो नहीं सकता। निश्चय ही वहां के लोग भी भारत आते और उनमें से कुछ स्थायी रूप से रहने लगे हों तो किं आश्चर्यं ? लेकिन इस विषय में आम लोगों में उपलब्ध जानकारी ना के बराबर ही है। इसलिए हमें कंबुज देश के राजनयिक की जिज्ञासा और दूसरी संभावित संभावनाओं की खोज करनी ही चाहिए।
सही ही कहा गया है कि दोस्ती और मोहब्बत होना ही काफी नहीं, एक दूसरे को ऐसा जताते और सुनाते भी रहना चाहिए, ऐसा करने से आपसी प्रेम बढ़ता और मज़बूत होता रहता है, लेकिन जाने क्यों हम दक्षिण- पूर्व देशों से पैगाम-ए-मोहब्बत की बदौलत बने बढे अपने दोस्ताने के मामले में शरमाए रहते हैं। जिन पश्चिमी देशों ने इन देशों को जबरन अपना उपनिवेश बनाए रखा या जिनसे इनकी लम्बी दुश्मनी रही, वे तो उन पर गलबहियां डालते नज़र आ रहे हैं और हम एक तरह से दर्शक दीर्घा में बैठे हुए हैं। पाश्चात्य देशों के अलावा विशेष रूप से आस्ट्रेलिया, जापान और चीन ने भी इन देशों में अपनी सांस्कृतिक संस्थाए स्थापित करके उनके सहयोग से अनेक शोध-योजनाए चला रखी हैं। और हम इन देशों की ओर से बढ़ते हाथ भी ठीक से नहीं थाम पा रहे हैं।
भारत की ओर से सबसे अहम् भागीदारी चल रही है भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के माध्यम से - म्यांमार, कम्बोडिया, लाओस और विएतनाम के प्राचीन मंदिरों के संरक्षण-कार्य में। इनमें से म्यांमार और कम्बोडिआ में बहु-आयामी शोध के अनुक्रम में सम्पादित स्तरीय संरक्षण की गूँज सारी दुनिया भर उठ रही है। फिर भी, फ्रांस, चीन, और इटली जैसे देशों द्वारा इन देशों में कराए जा रहे ऐसे कार्यों से होड़ बनाए रखने के लिए भारतीय परियोजनाओं को और अधिक शोधपरक और प्रभावी बनाने की आवश्यकता है।
आज की तारीख में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण में, भारत में ही संरक्षित साढ़े तीन हज़ार से भी ज्यादा संरक्षित स्मारकों/स्थलों के संरक्षण की जिम्मेदारी निभाने के लिए, विशेषज्ञों की भारी कमी बनी हुई है, इसलिए बेहतर होगा कि इन देशों के लिए अलग से समर्पित विशेषज्ञ दलों का गठन किया जाए। इतना ही नहीं, इन देशों की ऐसी परियोजनाओं में, जहाँ अपेक्षित हो, हमें आगे बढ़ कर नेतृत्व करने के लिए आगे आना चहिए। इस सन्दर्भ में सरकारी स्तर पर समुचित समझ और तालमेल की बड़ी ज़रुरत होगी अन्यथा हम पहले की तरह हाथ आए मौके भी गँवा सकते हैं। यहां उल्लेखनीय है कि कम्बोडिया की पहल पर वहाँ के स्मारकों के संरक्षण के लिए बानी एक कमिटी की अध्यक्षता के लिए नामित भारतीय विशेषज्ञ, यहाँ की विशिष्ट कार्य-प्रणाली के चलते, तीन वर्ष में एक बार भी उस कमेटी की बैठक में शामिल नहीं हो पाए। परिणामतः उस परियोजना की कमान चीन के हाथ में चली गयी।
भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा कम्बोडिया में एक संग्रहालय स्थापित करके एक अच्छी शुरुआत की गयी है। इसकी अन्य संस्थाए समय समय पर इन देशों में सांस्कृतिक महोत्सव, सेमीनार, प्रदर्शनी जैसे आयोजन आयोजित करने की दिशा में अग्रसर हैं। भारत के राष्ट्रीय संग्रहालय और वियतनाम के दानांग संग्राहलय के संयुक्त तत्वाधान में कुछ योजनाएँ चल रही हैं। नालंदा विश्व विद्यालय में इन देशों के शोधार्थियों को अध्ययन के लिए फ़ेलोशिप दी जा रही है। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के पुरातत्व संस्थान में कभी-कभार कुछ विद्यार्थी इन देशों से भी आ रहे हैं। ऐसी योजनाओं, गतिविधियों और आयोजनों का बहुत अच्छा भी प्रभाव पड़ रहा है। इस सबके बावजूद इन प्रासायों को अन्य देशों की तुलना में काफी नहीं कहा जा सकता, इस दिशा में और अधिक गति और सुविचारित नियोजित योजनाओं की आवश्यकता बनी हुई है।
अन्य देशों की तरह हमें भी दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में अपने शोध संस्थान स्थापित करने और वहां की संस्थाओं के साथ संस्कृति एवं पुरातत्व विषयक संयुक्त शोध-परियोजनाएं चलानी चाहिए। इससे हमें इन विषयों में अपने विशेषज्ञ तैयार करने और लम्बे सांस्कृतिक एवं मैत्री संबंधों का गुणात्मक लाभ होगा। यहाँ यह रेखांकित करना भी युक्तिसंगत लग रहा है कि हमारा ध्यान इन देशों में भारत से क्या-क्या गया केवल इसी पर केंद्रित नहीं रखना चाहिए। थोड़े दिन उनसे मिलने-जुलने और चर्चा के दौरान मुझे उनकी रूचि विशेषतः उनके अपने योगदान पर केंद्रित दिखी। स्वाभाविक रूप वे यह जानना चाहते हैं कि भारत से आयी सांस्कृतिक एवं वास्तु परम्पराओं को अपनी संस्कृति, अनुष्ठानों, परम्पराओं, कला, भू-भाग और आबोहवा आदि के अनुरूप उन्होंने कैसे इतने सुन्दर स्वरूप में विकसित किया कि उनकी वजह से वहाँ मन्दिरों को 'विश्व विरासत सूची' में सम्मिलित किया गया। और यह भी कि, ऐसे कौन से सांस्कृतिक तत्व हैं जो उनके यहाँ से भारत आ कर यहाँ की संस्कृति में रच गए।
'पूरब देखो नज़रिए' के तहत हमारे माननीय प्रधान मंत्री जी द्वारा की गयी दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों की यात्राएं और फिर गणतंत्र दिवस समारोह में वहाँ के दस देशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित किया जाना निश्चय ही एक नयी सकारात्मक सोच का परिचायक है। हमारी हार्दिक कामना है कि इस सोच को असलियत का जामा पहनाने के लिए सम्बंधित मशीनरी के कल-पुर्जों में अपेक्षित सामयिक तालमेल और संतुलन स्थापित हो सके।
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Map 1: Gunawan Kartapranata File:Hinduism Expansion in Asia.svg
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