वजूद
यूं तो धूल-ओ-गुबार से
नाता रहा है अपना।
कहीं भी बैठे या पसरे,
क्या बिगड़ गया अपना।
भटकते हुए अजनबियों के घर भी,
डेरा डाल रहे अपना।
अनजानों से भी मांग के खाया,
मनभाया अपना।
ऐसा ही आवारा अदना सा
वजूद है अपना।
नाता रहा है अपना।
कहीं भी बैठे या पसरे,
क्या बिगड़ गया अपना।
भटकते हुए अजनबियों के घर भी,
डेरा डाल रहे अपना।
अनजानों से भी मांग के खाया,
मनभाया अपना।
ऐसा ही आवारा अदना सा
वजूद है अपना।
जैसा भी है अपना वजूद,
तो अपना ही है।
ऐसा भी नहीं कि
बिना बुलाए ही,
चला जाए 'कहीं' भी।
फिर चाहे वो
ताज़ो-तख़्त,
महफ़िल-ए-सदारत,
या स्वप्निल संसार,
ही क्यों न हो।
तो अपना ही है।
ऐसा भी नहीं कि
बिना बुलाए ही,
चला जाए 'कहीं' भी।
फिर चाहे वो
ताज़ो-तख़्त,
महफ़िल-ए-सदारत,
या स्वप्निल संसार,
ही क्यों न हो।
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