रास्ता चलते हुए: सत्र दो
सुमिरन कै के माई सरसुती, लै मैहर वाली कै नाम,
जय जय बिंध्याचल देबी की, बाबा बिश्वनाथ कै धाम,
हाथ जोड़ हम सुरु करी तब, अब आगे कै सुनौ हवाल,
गलती कोई जो हो जावै, मूढ़ जान कै करिहौ माफ़ ।
सार्थवाह
पिछले सत्र में खलीफा से बंधवाए शोध के गंडे ने बहुत दिनों से सो रहा आवारगी का जिन्न फिर से जगा दिया। तिस पर सवार रास्तों के पुराने जाल को समझने-सुलझाने का चाव। इसलिए इस बार चलने से पहले बरसों से किताबों के ढेर में गर्द ओढ़ती डाक्टर मोती चन्द्र की नायाब देन 'सार्थवाह' निकाली, सलीके से झाड-पोंछ कर झोले में संभाली, और लखनवी मिजाज़ से उबरते, बस में सवार हुए। शोध से ज़्यादा घना घुमक्कड़ी का नशा।
खिड़की के बाहर के फिसलते नज़ारों से दिल भरा तो समय काटने को 'सार्थवाह' निकाल ली, कुछ ही पन्ने पलटते 'साथ-साथी' 'पथ-पथों' की व्याख्या से दिमागी गलियारा उजियार होने लगा।
समान अर्थ (एक जैसी पूंजी) ले कर चलने वाले व्यापरियों के समूह के लिए समा निकाली, न का 'स' और 'अर्थ' को जोड़ कर एक शब्द बना = 'सार्थ'। फिर रगड़ते-बदलते, बोलते बतियाते बच रहा 'साथ' और उससे बना साथी।
बरबस ही याद आया - 'कारवां गुज़रने और गुबार देखने के बोल'। जाने कब से गुनगुनाते-सुनते इनके सही मायने पूरे वज़ूद के साथ अब समझ में आए। 'कारवां' शब्द का ही पर्याय और साथ-साथ एक पथ पर चलने वाले ऐसे पान्थों का अगुआ या मुखिया कहलाया - 'सार्थवाह।
पथों-परिपथों का जनम कब और कैसे', आदम और पशु जात के पैरों के वज़न से कदम-दर-कदम-दर-कदम, हुआ, और पोख्ता होता गया। आदिवासी इलाकों में पग-डंडियों की लीक पर चलते इस सूत्र को समझना कठिन नहीं लेकिन 'अर्थ' के कल्याण और आनंद देने वाले पथों पर रथों, शकटों के चलने की अथर्ववेद की बानगी दिखाता है 'सार्थवाह'।
क्रमशः
जय जय बिंध्याचल देबी की, बाबा बिश्वनाथ कै धाम,
हाथ जोड़ हम सुरु करी तब, अब आगे कै सुनौ हवाल,
गलती कोई जो हो जावै, मूढ़ जान कै करिहौ माफ़ ।
सार्थवाह
पिछले सत्र में खलीफा से बंधवाए शोध के गंडे ने बहुत दिनों से सो रहा आवारगी का जिन्न फिर से जगा दिया। तिस पर सवार रास्तों के पुराने जाल को समझने-सुलझाने का चाव। इसलिए इस बार चलने से पहले बरसों से किताबों के ढेर में गर्द ओढ़ती डाक्टर मोती चन्द्र की नायाब देन 'सार्थवाह' निकाली, सलीके से झाड-पोंछ कर झोले में संभाली, और लखनवी मिजाज़ से उबरते, बस में सवार हुए। शोध से ज़्यादा घना घुमक्कड़ी का नशा।
खिड़की के बाहर के फिसलते नज़ारों से दिल भरा तो समय काटने को 'सार्थवाह' निकाल ली, कुछ ही पन्ने पलटते 'साथ-साथी' 'पथ-पथों' की व्याख्या से दिमागी गलियारा उजियार होने लगा।
समान अर्थ (एक जैसी पूंजी) ले कर चलने वाले व्यापरियों के समूह के लिए समा निकाली, न का 'स' और 'अर्थ' को जोड़ कर एक शब्द बना = 'सार्थ'। फिर रगड़ते-बदलते, बोलते बतियाते बच रहा 'साथ' और उससे बना साथी।
बरबस ही याद आया - 'कारवां गुज़रने और गुबार देखने के बोल'। जाने कब से गुनगुनाते-सुनते इनके सही मायने पूरे वज़ूद के साथ अब समझ में आए। 'कारवां' शब्द का ही पर्याय और साथ-साथ एक पथ पर चलने वाले ऐसे पान्थों का अगुआ या मुखिया कहलाया - 'सार्थवाह।
पथों-परिपथों का जनम कब और कैसे', आदम और पशु जात के पैरों के वज़न से कदम-दर-कदम-दर-कदम, हुआ, और पोख्ता होता गया। आदिवासी इलाकों में पग-डंडियों की लीक पर चलते इस सूत्र को समझना कठिन नहीं लेकिन 'अर्थ' के कल्याण और आनंद देने वाले पथों पर रथों, शकटों के चलने की अथर्ववेद की बानगी दिखाता है 'सार्थवाह'।
क्रमशः
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