Thursday, January 30, 2014

रास्ता चलते हुए: सत्र दो - 5

January 30, 2014 at 10:40pm


2.5  कान कटा देगा 

उस्ताद के इशारों पर घूमते पंचकोशी मार्ग छोड़ बरास्ते कछवा बाज़ार हो कर अगले निशाने पर पहुँच कर सवारी खडी कर दी। उस्ताद की पेशगी का पान सजाए खलीफा के ओंठों की लाली देखते बनती। पच्छिम बगल पास ही लगे ऊँचे डीह पर चढ़ कर ऊपर पहुंचे तो अध्-चकरिया घुमाव की कगार का नज़ारा खुला। पश्चिमाभिमुख गंगा द्वारिकापुर गाँव के आगे जा कर पूरब मुंह पलट कर बहती पसरी दिखी।




जिन गाँवों और डीहों के नाम के साथ जुड़े हों 'बीर' उन्हें आम तौर पर पुराना ही होना चाहिए। पुरानी परम्परा के अनुसार हर गाँव-पोखर की निगरानी के लिये चौकस तैनात रहते है बड़े बड़े यक्ष और बीर उनके हैं अलग अलग नाम - बड़का, लहुरा, आदि।  इसी तर्ज़ पर द्वारिकापुर के पूरब बसे गाँव का नाम पड़ा 'केवटाबीर' और इन दोनों गांवों के बीच की पुरानी बसावट का डीहा कहलाया 'अगियाबीर'। लेकिन इस ओर किसी का ध्यान तब तक नहीं गया जब तक कि उस्ताद के एक संहरिया रिश्तेदारी में पड़ी लगन में  द्वारिकापुर नहीं आए। उनको लगन लगी थी पुराने नरिया खपरा खंगालने की, जागें कि सोएं, सुबह हो कि शाम सब घडी उन्हें ओही दिखाता। संझा बेला नारा पार के 'ओपन वाश यार्ड' में निपटान को निकले तो  आस-पास देखा गइल बिखरल खपरा, फिर तो लोटा कहीं ओ धियान कहीं, सब छोड़ ओही में लपटाय गए। लौटे तो लगे गाँव वालों को बटोर कर लाए नमूनों की तफसील - ई हौ ब्लैक-एंड-रेड औ ई ब्लैक-स्लिप्ड, सुनने वाले मुंह बाए सुनते ही रह गए।

बारात से लौट के गुरू जी के सामने पोटली पलटी तो कुछ देर देख परख कर उजियार हो गए - 'ये साइट तो कमस कम तैतीस-चौतीस सौ बरस पुरानी होगी। गोरखपुर में नरहन और इमलीडीह के टीलों की खुदाई से भी तो इनसे मिलते जुलते प्राचीन बर्तन मिले हैं'।   

अगले बरस गुरु जी की अगुवाई में कुदरी फरसा, गैंती गैंता के साथ द्वारिकापुर में डेरा डाल कर अगियाबीर के टीले पर चली खोदा खोदी में उपराय प्रमाण से पता चला कि इंहा तो साँचौ तीन हज़ार बरस से भी पहले से बसावट रही।

डीह के पूरब घाट ऊपर 'लूटा बीर मंदिर' के पास बिखरे मिले पुराने पथर-मंदिलों-मूर्तियों के अवशेष। यहाँ आ कर खलीफा और उस्ताद दोनों की दखल नही चली।  लेकिन अपने एक कलावंत मित्र की संगत में जुटाए ज्ञान की बदौलत मुझे अपनी प्रतिभा दिखाने का मौक़ा मौक़ा मिल गया -



"गोल गोल गुल्ला जैसी उभरी आँख और मोटे ओंठ वाला पुरुष-मुख और हाथ उठाए उकडू बैठे पुरुष आकृतियों से अंकित प्रस्तर खंड लगते हैं सोलह-सत्रह सौ बरस पुराने।"




"चंद्रशाला, जिस पर अंकित हैं गरुड़ पर सवार भगवान् विष्णु, होगी बारह-तेरह सौ बरस पुराना।
बाक़ी की मूर्तियां और स्तम्भ गवाही देते है यहाँ सात-आठ सौ वर्ष पहले तक चले मंदिर निर्माण की परंपरा की।"

हमें देख गाँव वालों के साथ वहाँ आए मंदिर के पुजारी जी से मालूम हुआ कि यहाँ से मिले, बनारस में संस्कृत यूनीवर्सिटी में रखे, एक पाखल-खंड पर उकेरे लेख के मुताबिक़ - सोलह-सत्तरह सौ बरस पहले शक वंशीय महाराज रुद्रदामश्री के वक्त में भी यहाँ एक देवकुलिका या देवालय की प्रतिष्ठापना करायी गयी। इस बिना पर हमारा दिमाग उस रास्ते पर दौड़ने लगा जिस पर चल कर, शायद पश्चिम भारत के शक राज्य से, मध्य प्रदेश के मालवा और विदिशा से हो कर आने वाले सार्थवाह दक्षिणापथ पकड़ कर विंध्याचल और वहाँ से तिरछे उत्तर पूरब का रुख धरे गंगा पार कर बनारस की ओर आते रहे होंगे।  

कगार पर टहलते गंगा पार दक्खिन पश्चिम में मिरज़ापुर/ विंध्याचल की बसावटों के धुंधले बिम्ब देखते ही खलीफा ने नतीज़ा निकाला - "एही घाट से सीधा जाता था उधर मीरजापुर/ बिन्ध्याचल का आगे दक्षिनापथ की ओर, इधर उत्तर पूरब सीधा बनारस, और इधर सीधा उधर जाता था जौनपुर का एलाइनमेंट में साकेत/अजोध्या की ओर।"    

"और ऐसा नहीं हुआ तो ?" खलीफा को छेड़ा तो भड़क गए - "क्या बात करता है। एही सही है। गलत हुआ तो कान कटा देगा।" 

हम वहाँ के कई चक्कर लगा चुके थे, कभी कटका रेलवे स्टेशन से तो कभी कछवा के रास्ते। खलीफा को आगाह किया - "तो फिर तैयार हो जाइये कान कटाने को।"

केवटा बीर के और पूरब में गंगा के साथ साथ चल कर पहुंचे 'बरैनी घाट'। यहाँ भी घाट और गंगा से लगे डीह पर बिखरे करीबन तीन हज़ार बरस तक पुराने बर्तन दिखला कर खलीफा को दिखलाया -

"देखिए बनारस से आने वाला रास्ता कछवां की राह यहाँ गंगा के पार उतरता रहा, अगिआबीर से नही। अब कटवाइए कान। "

खलीफा ऐसे कहाँ मानने  वाले, किसी तरह अनमने मन से माने  भी तो मुस्कुराते हुए पुछल्ला लगाने से नहीं चूके - "एही तो हम भी बताया ना।  ई माउंडवा भी तो अगिआ बीर से सटा है।"




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 क्रमशः

* फोटो: श्री बरुन सिन्हा एवं डाक्टर अशोक कुमार सिंह से साभार

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