ख़त्म हो शायद तमाशा
यूं ही, नियत ने, ला दिया, इस मुकाम पे,
इक अजनबी सा रह लिया, इस मकान में।
२.
टटोलता ही रह गया, किस तलाश में,
समझ नहीं यही सका, इस जहान में।
३.
कसमसाता जी लिया, अपने ही आप में,
ज़ज्ब सब करता गया, ढलका न कोर में।
४.
दम बहुत घुटता रहा, ओढ़े लिबास में,
चेहरा छुपाए चल रहा, इक नकाब में।
५.
तीर ज्यों कांपा करे, तनती कमान पे,
तमतमाता रह गया, अपने मिजाज़ में।
६.
जाम फिरभी पी लिया, रीते गिलास से,
जो था नहीं, दिखता रहा, बहकी निगाह में।
७.
नजरें जमाए था चला, अपने जुनून में,
दबे कदम बढ़ता रहा, सुदूर राह में।
८.
झंझा चली, अंधड़ उठे, बेहद अँधेरे में,
बाती मगर जलती रही, नन्हे से ताख में।
९.
साथ भी मिलता गया, अज़ीज़ साथ में,
सबका जुटाया पा गया, यूं ही जहान में।
१०.
थोड़ा यहाँ साझा किया, हमराह ! राह में,
११.
छोड़ ये कूचा चला, अगली फिराक में,
ख़त्म हो शायद तमाशा, उस पड़ाव में।
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