तन्त्र जन
धनबल भुजबल जातिबल, और धरम धर नेंय,
ता पर धारौ और सब, यहै तन्त्र जन होय.
साम्य-समाज-जन वाद, सब छूटे बहु दूर,
पइसा-पावर-वँश ही, रहे सकल फल फूल.
शक्ति-केंद्र बहुरूप हैं, इन्है साध ले जोइ,
सत्ता साधै हाथ में, राज कर सकै सोइ.
शक्ति रचै शिव-भावमय, त्याग तपस्या जोग,
जनहित-देश अराध हों, 'राजनीति' तब होय,
बम-बम भोले बोल कै, करौ ध्यान अब भंग,
तिनहू लोक समेट कै, भसम रचाओ अंग.
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