भोर में आँख खुली
राकेश तिवारी
भोर में आँख खुली,
खुमारी नहीं टूटी,
अलसाया करवटें बदलता हूँ.
पड़ा-पड़ा पास-पड़ोस टोहता हूँ.
सूरज उजाला उगलता ऊपर आने लगा,
दूर कहीं तीतर टहका,
कुछ देर सन्नाटा,
पडुखी ने चुप्पी तोड़ी.
आस-पास कंटीली झाड़ियाँ, दूर तक फैली,
चारों ओर से घेरती कैमूर की पहाड़ियां,
परत-दर-परत धरे, समतल बड़े पत्थल, छाया दार.
फैला बियाबान, इधर उधर ढलता,
पीली-लाल माटी का झाड़ी भरा जमाव,
एक दो गयार-भैंसवार, सौ-पचास ढोरों के साथ,
आज की अणु-युगीन दुनिया, सभ्यता असभ्यता (?) से
बहुत दूर,
जहां हम कुदरत के बहुत करीब होते हैं,
छोटा सा ख़ेमा डाल लिया है.
मटमैले तिरपाली वितान पर भटकती नज़रें,
कुछ नन्हे सूराखों से छनती रोशनी,
मन का मकौड़ा रेंग रहा है.
सुबह से शाम तलक
एकलय काम,
आदिम मानव के चीन्ह तलाशता हूँ.
पहाड़-पहाड़, कगार-कगार,
कांटेदार करवन के झाड़,
उलझे बांस, खैर, पलाश, और
बैर के जंगलात,
मकोइया, अईलाइन* की लतरें,
दामन थाम लेती हैं.
गलगला के चटख पीले और टेसू, सेमल के
खूब लाल, खूबसूरत फूल,
चौकड़ी भरते कोटार,*
नील-साम्भर के जोड़, मोह लेते हैं.
बौराए आम, महुए और पिआर* की
मादक गमक
जो एक बार भिन जाए,
अंतर्मन की कली,
रहती है आजीवन रस भरी.
बेहद थकान भरी शामें,
पोर-पोर दरकते,
शिथिल तन, आराम माँगता.
लेकिन मन ? बेतरह विकल.
सुबह की ताज़ा तन्हाइयों में भी पागल दौडें,
दिन भर की
समय-संधियों के बीच शेष पलों तक में
सिहराती पैठती आती हूँकें,
जैसे सुनहरी सोन-रज का नज़ारा निरखते, चलते,
मोटे 'सोल'* को बींध कर
बेल का नोकीला काँटा, गहरे उतर जाए,
या, फिर, किसी नाज़ुक परिंदे के जिस्म में,
किसी बैगा की कमान से छूटा तीर, धंस जाए.
आज इस वन,
कल उस,
खोह-कन्दरा-वादी में डेरा डाले,
कहाँ क्या तलाश रहा हूँ?
कैसे कैसे भटक रहा हूँ?
सारे सारे दिन
ये उनींदी पलकें कैसी?
भोर में नींद खुली
खुमारी नहीं टूटी.
अलसाया करवटें बदलता हूँ.
पड़ा-पड़ा पास-पड़ोस टोहता हूँ.
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* अईलाइन = सोनभद्र जिले में एक लतर का स्थानीय नाम; कोटार = हिरन; पिआर = चिरौंजी, 'सोल' = जूते की तली, आत्मा
1980
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