Wednesday, January 5, 2011

थोड़ा सा लिख लेता हूँ


थोड़ा सा लिख लेता हूँ

राकेश तिवारी

ताल किनारे चुप चुप  जब कंकडियाँ फेंका करता हूँ,
सुधियों के सागर-तट पर जब लहरें तकता रहता हूँ/

घने वनों के अन्दर जब मैं डेरा डाले रहता हूँ,
खुशियों के सैलाब समेटे छलका-छलका पड़ता हूँ/

खुले गगन के नीचे जब मैं खाट पे लेटा रहता हूँ,
आसमान में सजे हज़ारों जुगनू देखा करता हूँ/
मार बुडुक्की गहरे जल में तल पर तिरता रहता हूँ,
राग लगा कर जब मैं थोड़ा बहका-बहका फिरता हूँ/
तब थोड़ा सा लिख लेता हूँ// 


बगियों में जब चारों ओर महुआ  जोर गमकता है,
टेसू जब सारे जंगल में अंगारों सा खिलता है/

शाम ढले सूरज पछांह को रंगों से भर देता है,
चन्दा जब हिम-सजी श्रेणियाँ चांदी से ढक देता है/


पसरी घाटी के भीतर जब घना कुहासा लगता है,
सुर्ख लाल फूलों का गुच्छा जब बुरांस पर सजता है/ 

चकले-चपटे पाहन पर झरने की धुन जब सुनता हूँ,
बँसवारी में उलझ-उलझ चलती बयार में रमता हूँ/
तब थोड़ा सा लिख लेता हूँ// 

भाव घनेरे होने पर जब आँखें नम कर लेता हूँ,
दर्द सहा नहि जाता है जब पीड़ा से अकुलाता हूँ/

आधी रात में उठ कर जब सूने में सोचा करता हूँ,
निपट अँधेरे बैठ अकेले उनका सिजदा करता हूँ/

चारों ओर लगी अगियन में जब मैं तपने लगता हूँ,
दुखिया मन की आहें जब मैं अपने अन्दर सुनता हूँ / 

 भरी  रात मैं नदिया में जब किश्ती ले कर चलता हूँ,
श्मशान की सतत आग पर ध्यान गडाए रहता हूँ/
तब थोड़ा सा लिख लेता हूँ// 

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03 January 2011

5 comments:

  1. grand words describing Royal feelings.....

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  3. बुडुक्की ............. वाह वाह क्या शब्द चयन है राकेश जी, बहुत खूब|
    चकले-चपटे पाहन पर झरने की धुन ...................... ओहोहोहो मान प्रसन्न हो गया|

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  4. धन्यवाद। आज आपके सारे कमैंट्स पढ़े। पहले उत्तर न दे पाने के लिए छमा करें।

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