Sunday, October 8, 2023

 'जो सोचिए वो होता है, लेकिन बस वही वही नहीं होता ---'

हर साल की तरह इस साल भी अपना जन्मदिन आने को हुआ तो कुछ ख़ास नहीं लगता रहा, अगले मुकाम सा आएगा चला जाएगा। मगर इस बार बहुत ख़ास बन गया।
दस बरस पहले, सरकारी चाकरी के नियराने के दिन करीब आने पर लगा कहानी पूरी होने को आयी, तो 1976 से अब तक लिखी किताबों की धूल पछोर कर पीले पड़ रहे पन्नों पर हसरत की नज़र डालता उदास हो कर सोचता ऐसे ही धरी रह जाएंगी क्या !! दस हजार वर्ष से मानव गतिविधियों के साक्ष्य उपलब्ध कराने वाले लहुरादेवा के उत्खनन की रिपोर्ट पूरी नहीं हो पाएगी क्या !! और और भी बहुत कुछ अधूरा रह जाएगा क्या !!! अब और कुछ तो करने को रहा नहीं क्यों न अब इनकी सुध ली जाए।
जैसा सोचा वैसा नहीं हुआ। होनी ने बड़ी तेज़ी से कई कई करवटें बदलीं। मई 2012 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण में हुए मेरे चयन के लिए मुझे सर्वथा अयोग्य मानने वाले शुभचिंतकों ने सेन्ट्रल ट्रिब्यूनल में उसे निरस्त करने की याचिका ठोंक दी।अक्टूबर 2013 में सेवा निवृत्त होकर, अपने स्थायी मकान में रहने की तौयारी करते 'प्रेसीडेंसी यूनिवर्सिटी, कलकत्ता से सूधे पांच साल के लिए प्रोफ़ेसर के पद का ऑफर आसमान से टपक कर आया। उधर सेवा प्राधिकरण ने मेरे चयन को चुनौती देने वाली मित्रों की याचिका निरस्त कर दी। लेकिन वो प्रकरण माननीय उच्च न्यायालय में लटक गया। इसी बीच अप्रत्याशित रूप से नेशनल जिओग्राफिया वालों का न्यौता आ गया टर्की में प्रस्तावित 'डायलाग ऑफ़ सिविलाइज़ेशन' में भाग लेने का। कलकत्ता में ज्वाइन करने की सहमति भेज कर उड़ गए कुस्तुन्तुनिया। लौटते ही नियुक्ति-पत्र पा कर दिल्ली में ही खूंटा ठोंका गया - तीन बरस के लिए।
एक एक कर पुरानी पांडुलिपियों के प्रकाशन के दिन बहुरने लगे।
(1) सन 2014: 'सफर एक डोंगी में डगमग' (1980 की जिल्द), सन 1976 में दिल्ली से कलकत्ता की नाव यात्रा पर;
(2) सन 2018: 'पवन ऐसा डोलै', सन 1973 से 2012 के बीच मिर्ज़ापुर-सोनभद्र की यात्राओं पर आधारित (1982 की जिल्द),
(3) सन 2019: 'पहलू में आए ओर छोर', सन 2012 और 2014 में चिली और टर्की की यात्राओं पर आधारित;
(4) सन 2021: 'अफ़ग़ानिस्तान से ख़त-ओ-किताबत', 1977 में अफ़ग़ानिस्तान-ईरान की यात्रा पर आधारित (1980 की जिल्द),
(5) सन 2022: 'लहुरादेवा उत्खनन रिपोर्ट' (Excavations at Lahuradewa), और
(6) सन 2022: 'जिरह अजुधिया: हमरी लेखीं' (प्रेस के हवाले)
नयकों के साथ बीते दिनों की तरंग में लौट लौट कर लहके। विषमताएं-असंगतियां वय-सीमाएं सब भूल-भाल कर। संवेदित स्पंदित उर्जित जीने लगे नव सपन-लोक में। वन-पाखल वाले ठीहों, विंध्य-हिमाल की खुली बाहों, ताज़ा हवाओं में निमग्न विस्मृत बहता गया। लिखता रहा, लिखता ही रहा - ठहि ठहि वन पाखल कै ठीहा, अनाम लेखे। लिख डाले देखे-सुने, अंतर्मन के सम-रेले। दो हजार से अधिक पृष्ठों पर लाखों शब्द बरसते गए।
ऐसे ही गुजर गया दस बरस का अंतराल। अगला जन्मदिन आने को हुआ। पलट कर देखा, पुराना तजुर्बा एक बार और पक्का हुआ - "जैसा सोचा था तकरीबन वैसा नहीं हुआ।" बहुत कुछ हुआ। बहुत कुछ सोच से बहुत परे हुआ। कहाँ तो एकरस नीरस रिटायर्ड जीवन बिताने का ख्याल, और कहाँ 'कलकत्ता-दिल्ली-कुस्तुन्तुनिया-कतर-चीन-कम्बोडिया-वियतनाम-हांगकांग-मलेशिया-विएना-कोलोन-बांग्ला देश की उड़ानें; पटना-भोपाल-शिमला-लदाख, असम, सोनभद्र, बांधवगढ़ और बनारस मनभावन।
मगर, थम कर बैठते ही दस साल पहले वाले अभिशप्त संपृक्त आगत का संशय रिसने लगा। गहरी उदासी में उब्ब-डुब्ब, रीता रीता, आसहीन। आखिर आ ही गए वो दिन, अब तो कुछ भी नहीं बचा, अनमना सा घिसटता, अकेले में चुपचाप खुली-बंद आँखों के अँधेरे सूने गलियारों में बेमशरफ़ घूरता। सोचता एक बार मिल और मिल लें, भर आँख देख लें, मन भर नेह जता लें,
आँखों में भर आएं, चख आएं, फिर आगे पता नहीं ऐसा हो पाए, न हो पाए। भरी दुनिया में सबके बीच निरा अकेलापन घेरने लगता, किसी से मिलने कहीं नहीं जाने अपने आप में सिमट जाने का मन करता। लगता अब बस सब ख़तम ही होने को है, सभी उमंगों पर मानो मोटे तुषार की परत पड़ गयी हो।
ऐसे में एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि पूरी तरह रीतने-छीजते, वैसी ही मनोदशा से ग्रस्त बहुत पुराने गहरे साथी से मन की व्यथा साझा करने का योग बना। कुछ देर चुपचाप सुनते-सुनते उतने ही उतरे हुए उदास चेहरे, उतनी ही सूनी-पनीली हो चली आँखों में वैसे ही हताशा भरे भावों में भीगे बोलों में बोला - 'लगता है ये भाव मैंने आपसे ही पा लिए हैं।'
कलेजे में धंसे रह गए उसके वो बोल। दिनों-दिन मथने लगे अंदर ही अंदर - 'इतने प्यारे साथी पर खुद की इतनी नकारात्मक छुतही परछाईं का ऐसा प्रतिकूल प्रभाव !!' सोचते-सोचते सोचा - 'अगर बुरी छाया पड़ सकती है, तो अच्छी भी पड़ेगी ही पड़ेगी। इसलिए इतनी गहन आशामय सकारात्मक ऊर्जा के भाव सृजित किये जाएं जो जीवंत जीवनी शक्ति से रीचार्ज करके नयी उजास संचरित कर दे। सोचते-सोचते सब सोच ही बदल गयी। आगत-अनागत सब भूल कर, काल के प्रवाह में बहने का मन बह चला। जितनी भी बची है ज़िंदगी, डूब कर जी ली जाए। जो मन करे जो साध सकें और जो न हो सके बिसारते चलें। मनमाने साथ के सुयोग के तो क्या ही कहने, अकेले भटकने के प्रारब्ध भी गले लगा लें।
नहीं जानता आगे कैसा क्या कितना होगा, फिर भी, बना ली एक और अधूरी आसों और नए सपनों की नयी 'विश लिस्ट': - लिख डालना है -
'पचास बरस बाद, एक बार फिर से 'पहियों के इर्द-गिर्द' नेपाल की उन्हीं राहों पर चल कर,
तैतालिस साल बाद, एक बार फिर जागेश्वर घाटी में डेरा डाल कर,
पूरे उत्तराखंड का एक और फेरा लगा कर,
दस वर्ष गंगा-घाटी से दक्षिण भारत को जोड़ने वाले दक्षिणापथों को फिर से टटोल कर,
चालीस बरस पहले मिर्ज़ापुर-सोनभद्र के चित्रित शैलाश्रयों पर लिखी थीसिस नए सिरे से सुधार कर,
लाहौल-स्पीति > किन्नौर > लद्दाख में टहल कर, और.
और जो-जो भी मन में आए सब कर लेना।
कृष्ण नाथ जी की "स्पीति में बारिश" पढ़ रहा हूँ ------
"जब बर्फ पड़ती है तो ऊपर ऊपर गहरी बर्फ जम जाती है, अन्दर-अन्दर नदी-नाला बहता रहता है। जो चलता रहता है उसमें गति रहती है, गरमाहट रहती है। जो बैठ जाता है, वह जम जाता है जड़ हो जाता है, और जो सोता रहता है वह तो जैसे मरा हुआ है। जड़, ठण्डा और हरकत - हीन।"
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06 Oct 2023

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