Tuesday, March 29, 2016

कमरिया

कमरिया

चाकरी में लग गए, इस मोड़ पे आ कर के हम,
सोचते फिर भी रहे, क्या मंज़िले मकसद पे हम ?

था नहीं मालूम हमको, ठौर किस ठहरेंगे हम,  
था नहीं आभास यह कि, इस कदर जकड़ेंगे हम।

जो जो हुआ देखा किए, इस दौर में नत्थी हैं हम,
ये गौर से समझा किए, बे ताब की हस्ती हैं हम। 

चुपचाप जो सुनते रहे, उस राज़ के हमराज हम,
अहमक़ हमें समझा किए, उनके लिए बस खाक हम। 

फिर क्या हुआ, कैसे कहें, गुनते रहे अपने में हम,
क्या फैसला कैसे करें, दिन-रात थे उलझन में हम।

जोड़ा घटाया कर लिया, हासिल जमा हैं हम ही हम,  
है डेरा ये भी उठ गया, हैं अब नहीं गफलत में हम। 

क्या करेंगे अब भला, टूटी हुई लकुटी का हम,
अपनी कमरिया भी संभालो, चैन से पसरेंगे हम।

माने नहीं आली मगर, कहने लगे ऐसे ही चल,
करिया कमरिया’ ओढ़ कर, चलते रहो देखेंगे हम।
   
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