February 6, 2014 at 3:13pm
2.8 - कनिंघम बाबा
पूर्वी यूरोप से फ़ौज फाटे के साथ जीतते जाने के फेर में आया, अलेक्ज़ेंडर (सिकंदर) पश्चिमोत्तर भारत में आहत हुआ, व्यास नदी पर झिझक कर वापस हो लिया। उसे इस खित्ते में आम तौर पर आक्रामक के रूप में देखा गया।
पश्चिमी यूरोप का स्कॉटिश अलेक्ज़ेंडर भी यहाँ आया तो ब्रितानी फ़ौज के ही साथ लेकिन भारत को समझने के फेर में यहाँ के चप्पे-चप्पे की ख़ाक छानता फिरा, यहाँ के ऐतिहासिक साक्ष्य खंगालने-संजोने और चीनी यात्रियों के पगचिन्हों पर चल कर पुराने नगरों की शिनाख्त करने में ज़िंदगी खपा दी। उसे यहाँ के लोग आज भी हाथोहाथ लेते हैं। भारतीय पुरातत्त्व में अमर हो गया वह शख्श 'मेजर जनरल एलेक्ज़ेंडर कनिंघम के नाम से।
चुनार बस स्टेशन से सक्तेशगढ़ के रास्ते पर झिरना नाले के साथ शठ एक किलोमीटर चले होंगे जब मेरे इशारे पर रुकना पड़ा एक हरे-भरे नयनाभिराम टुकड़े के पास। नीचे झिरना के झरझर प्रवाह पर दिखा एक सदानीरा जल-स्रोत , उसके आस-पास के घने हरे गाछों की फुनगी और कुदरती खोह वाले मंदिर पर फड़फड़ाती लाल झंड़िआं।
सुहावना परिदृश्य, लेकिन उस्ताद वहाँ रुकने पर झल्लाए -
"अबहिएं तो चले रहे, तुरतै फिर पड़ाव ? का देखइबा इहाँ ?"
जब यह जाना कि - यही है दुर्गा खोह और सन १९८३-८४ ं इन यहाँ भी चरण पड़े थे श्रीमान कनिंघम महोदय के तो उस्ताद और खलीफा दोनों के पांचा खिल गए। उस्ताद ने क्षेपक लगाया -
"ई बतावा कि कनिंघमवा कहाँ नहीं गया। जहां देखा यहीं ओकर झंडी गड़ल हौ। यहाँ का कराइ के आइल रहा।"
नाचीज़ ने तफ्सील से बताया -
"इस जगह का धार्मिक मान बढ़ा होगा झिरना के झरना, कुदरती नूर ओ शांति भरा माहौल के बदौलत।
नहाए-बनाए-खाए के इंतज़ाम देख बनल होई पूजा के थान।
अगल बगल के खोह में डेरा डारत होइहन पुजारी, तीरथयात्री, आगे जाए वाला व्यापारी, ओ कनिंघम बाबा के मानल जाए तो खोह काटै वाला पथर-कटवन। खोह के सतह पर उकेरे ऐसे लोगन के नाम कनिंघम बाबा के हिसाब से सतरह सौ बरस और उसके बाद के होंगे। इनमें से कुछ तो बड़े लोग होते ही रहे जिनकी सवारी आती रही हौदे वाले हाथियों पर जिनकी तस्वीर खुदी दिखती है इन नामों के साथ।
कनिघम जी ने जो नाम पढ़ कर आज की दुनिया के लिए अपनी रपट में एक बार फिर से जिला दिए हैं उनमें से कुछ पथर-कटवों के नहीं लगते, जैसे 'ईशान शतपाश', 'जय समुद्र', 'संविदैविकांत' आदि।
चौमासे में ख़ास तौर पर छुट्टी वाले दिन यहाँ जुटते हैं दूर दूर से आने वाले देवी के पूजा-अर्चन के खातिर, और हांडी में दाल ओ आगी में बाटी खोप के, माई के अरदास में ढोल करताल बजाए के, गावै के कजरी।"
दर्शन-अर्चन-पूजन कर लाल टीका माथे पे सजाए उस्ताद ने गाड़ी में सवार होते-होते आखिरी शॉट मारा -
"एतना नारियल-चढ़ावा चढ़ता है कि पुजारिन कै पौ बारह हो जा ला। लेकिन पुन्न कमावै वाला भगत लोग औ आमदनी बटोरै वाला पुजारी दोंनों में से केहु के एकर फिकिर ना हौ कि पंजरै लगै वाला नारियल का जटा-खोखर ओ पन्नी बटोर के किनारे लगाए दें।"
------ क्रमशः
पूर्वी यूरोप से फ़ौज फाटे के साथ जीतते जाने के फेर में आया, अलेक्ज़ेंडर (सिकंदर) पश्चिमोत्तर भारत में आहत हुआ, व्यास नदी पर झिझक कर वापस हो लिया। उसे इस खित्ते में आम तौर पर आक्रामक के रूप में देखा गया।
पश्चिमी यूरोप का स्कॉटिश अलेक्ज़ेंडर भी यहाँ आया तो ब्रितानी फ़ौज के ही साथ लेकिन भारत को समझने के फेर में यहाँ के चप्पे-चप्पे की ख़ाक छानता फिरा, यहाँ के ऐतिहासिक साक्ष्य खंगालने-संजोने और चीनी यात्रियों के पगचिन्हों पर चल कर पुराने नगरों की शिनाख्त करने में ज़िंदगी खपा दी। उसे यहाँ के लोग आज भी हाथोहाथ लेते हैं। भारतीय पुरातत्त्व में अमर हो गया वह शख्श 'मेजर जनरल एलेक्ज़ेंडर कनिंघम के नाम से।
चुनार बस स्टेशन से सक्तेशगढ़ के रास्ते पर झिरना नाले के साथ शठ एक किलोमीटर चले होंगे जब मेरे इशारे पर रुकना पड़ा एक हरे-भरे नयनाभिराम टुकड़े के पास। नीचे झिरना के झरझर प्रवाह पर दिखा एक सदानीरा जल-स्रोत , उसके आस-पास के घने हरे गाछों की फुनगी और कुदरती खोह वाले मंदिर पर फड़फड़ाती लाल झंड़िआं।
सुहावना परिदृश्य, लेकिन उस्ताद वहाँ रुकने पर झल्लाए -
"अबहिएं तो चले रहे, तुरतै फिर पड़ाव ? का देखइबा इहाँ ?"
जब यह जाना कि - यही है दुर्गा खोह और सन १९८३-८४ ं इन यहाँ भी चरण पड़े थे श्रीमान कनिंघम महोदय के तो उस्ताद और खलीफा दोनों के पांचा खिल गए। उस्ताद ने क्षेपक लगाया -
"ई बतावा कि कनिंघमवा कहाँ नहीं गया। जहां देखा यहीं ओकर झंडी गड़ल हौ। यहाँ का कराइ के आइल रहा।"
नाचीज़ ने तफ्सील से बताया -
"इस जगह का धार्मिक मान बढ़ा होगा झिरना के झरना, कुदरती नूर ओ शांति भरा माहौल के बदौलत।
नहाए-बनाए-खाए के इंतज़ाम देख बनल होई पूजा के थान।
अगल बगल के खोह में डेरा डारत होइहन पुजारी, तीरथयात्री, आगे जाए वाला व्यापारी, ओ कनिंघम बाबा के मानल जाए तो खोह काटै वाला पथर-कटवन। खोह के सतह पर उकेरे ऐसे लोगन के नाम कनिंघम बाबा के हिसाब से सतरह सौ बरस और उसके बाद के होंगे। इनमें से कुछ तो बड़े लोग होते ही रहे जिनकी सवारी आती रही हौदे वाले हाथियों पर जिनकी तस्वीर खुदी दिखती है इन नामों के साथ।
कनिघम जी ने जो नाम पढ़ कर आज की दुनिया के लिए अपनी रपट में एक बार फिर से जिला दिए हैं उनमें से कुछ पथर-कटवों के नहीं लगते, जैसे 'ईशान शतपाश', 'जय समुद्र', 'संविदैविकांत' आदि।
चौमासे में ख़ास तौर पर छुट्टी वाले दिन यहाँ जुटते हैं दूर दूर से आने वाले देवी के पूजा-अर्चन के खातिर, और हांडी में दाल ओ आगी में बाटी खोप के, माई के अरदास में ढोल करताल बजाए के, गावै के कजरी।"
दर्शन-अर्चन-पूजन कर लाल टीका माथे पे सजाए उस्ताद ने गाड़ी में सवार होते-होते आखिरी शॉट मारा -
"एतना नारियल-चढ़ावा चढ़ता है कि पुजारिन कै पौ बारह हो जा ला। लेकिन पुन्न कमावै वाला भगत लोग औ आमदनी बटोरै वाला पुजारी दोंनों में से केहु के एकर फिकिर ना हौ कि पंजरै लगै वाला नारियल का जटा-खोखर ओ पन्नी बटोर के किनारे लगाए दें।"
------ क्रमशः
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