Monday, June 4, 2018

अफ़ग़ानिस्तान 6.3 : '---- मुग़ल बनि आए, ---'

अप्रैल 1977
अफ़ग़ानिस्तान 6.3 : '---- मुग़ल बनि आए, ---'
(खत अभी ज़ारी है)
'बस इनकी यही आदत अच्छी नहीं लगती। एम्बेसी वालों ने भी जाने क्या क्या थमा दिया आते ही। अब बस यहाँ भी पढ़ना, जाने क्या क्या सोचना, फिर उसे खत लिखना। इसी कमरे में घुसे रहना है और उसी के बारे में सोचना, तो यहाँ आए ही क्यों।' श्याम जी भुनभुनाते हुए चले गए। घूम-घाम कर आए थे गपियाने। मुझे लिखता देख कुछ देर इधर-उधर का जायजा लिया लेकिन कितनी देर मुंह बांधे रहते भला।
"काबुल के बारे में इससे पहले कभी कायदे से सोचा या पढ़ा नहीं था। लोग-बाग कभी-कभी किसी पढ़े-लिखे की बेवकूफी पर हंस कर बोलते - 'काबुल में भी गधे होते हैं' - तब भी नहीं। अब यहां आने पर इसके ज्यादा पहलुओं पर ध्यान जाना वाजिब हो गया। पढ़-पढ़ कर जो कुछ जुटाया खत का मज़मून बन कर तुम्हारे लिए हाज़िर है। ज़मीन पर बिछाने वाली 'दरी' का नाम ज़रूर सुना होगा, विंध्य के पठारों में झरने बनाते हुए बहने वाली धाराओं के लिए भल्दरिया दरी, देव दरी, पहती दरी जैसे नामों से हम खूब वाकिफ रहे, लेकिन फ़ारसी भाषा से निकली इस नाम की कोई भाषा-बोली अफ़ग़ानिस्तान में आम लोग बहुतायत में बोलते होंगे, यह यहीं आ कर जाना। इतना जान कर माथे में 'दर' और उससे जुड़े तमाम लफ्ज घूमने लगे। 'दर' के मायने होते हैं - जगह या द्वार और उसी से बने हैं दरवाज़ा, रास्ता बनाते हुए बहने वाला दरया, पहाड़ों के बीच का रास्ता - दर्रा, दरार, दर-दर वगैरह और फिर यह भी कि कितना कुछ यूं ही जान लेते हैं हम ऐसे ही दर-दर भटकते हुए।
वैसे अफ़ग़ानिस्तान के एक बड़े खित्ते में बराबर का दरजा रखती है 'पश्तो' भी जिसे बोलते हैं पश्तून लोग पूर्वी अफगानिस्तान से पश्चिमी पाकिस्तान तक आर पार। दरी और पश्तो दोनों को सरकारी ज़बान की हैसियत हासिल है। इनके अलावा यहाँ के अलग अलग इलाकों में अलहदा ज़बानें भी बोली जाती हैं जैसे दक्खिन में बलोचिस्तान वाले बोलते हैं 'बलोच', उत्तर-पूरब के छोटे हिस्से वाले नूरिस्तानी और बड़े फैलाव में ताज़िक, बीचोबीच हज़ारा, मग़रिब (पश्चिम) में ऐमाक, और धुर उत्तर-पश्चिमी पट्टी में तुर्कमेन। यह सब जान कर एक बार फिर अहसास हुआ कि अपने इलाके में रहते हुए बिना गहरी तफ्तीश के ही बनायी गयी हमारी धारणाएं कितना गच्चा खिला सकती हैं। इतनी बोलियों के चलते अलग-अलग लोग अपनी बोली के मुताबिक़ 'काबुल' को 'काबेल', कबोल, कबूल, कॉबुल भी पुकारा जाता है।
हमारे अवध में पास-पड़ोस में जब कोई ज्यादा बढ़ चढ़ कर मॉडर्न बनने लगता तो जब-तब लोगों को एक कहावत कहते सुनते रहे - "काबुल गए मुग़ल बनि आए, बोलैं मुगली बानी, आब आब कहि भइया मरि गे सिरहाने रक्खा पानी।" मतलबु यहु आय कि - भइया गए काबुल और वहां से मुग़ल भाषा सीख कर आ गए। जब वे बीमार हो कर खटिया पर पड़ गए और उन्हें बहुत ज़ोर की प्यास लगी तो काबुल में पड़ी मुग़ल भाषा में बोलने की आदत के मुताबिक़ 'आब' - 'आब' चिल्लाने लगे, सुनै वाले समुझै ना पाए की पानी (आब) मांग रहे हैं, औ ऐसे ही चिल्लाते-चिल्लाते भइया क्यार जिउ निकरि गवा, जबकी सिरहाने (सिर के पास) ही पानी रक्खा रहा। ये कहावत सुनते सुनते हम समझते रहे कि काबुल में 'मुग़लई बानी' (उज़्बेकी) बोली जाती रही होगी लेकिन जब यहाँ की बोलियों का सिजरा मिला तब पता चला यहौ मामले मा कितने भकुआ आन हम सबै - यहाँ ना तो मुग़लों का कोई मान है और ना उनकी असली 'ज़बान' ही चलती है। उज़्बेकी बोलने वाले बसते हैं हिन्दुस्तान के उस पार 'आमू दरया' के आस-पास वाले उज़्बेकिस्तान से लगे हिस्से में। एक बार हिन्द में आ कर वहीँ के हो कर रह जाने वाले मुगलिया शहनशाह बाबर और उसके खानदानी असल में उज़्बेकिस्तान से भाग कर पूर्वी ईरान और काबुल के रास्ते आते समय अपने साथ 'फ़ारसी दरी', 'पश्तो' और 'उज़्बेकी' की खिचड़ी ज़बान भी लाए थे, इसलिए अगर 'मुग़ली बानी' का मतलब उससे लगा लिया जाय तो हमारे अंदाज़ा का खटका बिलकुल सटीक बैठ सकता है।"
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(खत अभी ज़ारी है)

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