'हाफ ब्वाएल्ड'
काशी से भभूत रमाए जौनपुर जाते हुए सोचता रहा इस भूषा में अटाला मस्जिद का दौरा कैसा लगेगा, लोग क्या सोचेंगे, फिर सोचा जिसको जो सोचना है सोचे, पहली पहली बार तो भभूत लपेटी है अब जैसे हैं वैसे ही रहेंगे, यह सोच और अगर मगर भी फ़िज़ूल में दिमाग मथे रहती है।
मौके पर पहुंचे तो जौनपुर के किले के दरवाज़े पर अपने महकमे के और लोगों के साथ काले मुहर्रमी लिबास में जमाल साहब को गुलदस्ता थामे अगवानी में पाया तो याद आया वे भी दिल्ली से मुहर्रम मनाने घर आए हैं। मिलते ही उनकी गर्मजोशी ने दिल जीत लिया। बढ़-बढ़ कर आगे-आगे किले के बारे में बताने लगे।
जमाल साहब का घर किले के ठीक सामने है। उनकी 'नार' भी वहीं कहीं गड़ी होगी। पढ़ लिख कर बड़े हो कर रोज़ी - रोटी के लिए बाहर चले गए लेकिन हर साल मोहर्रम का वक्त आने पर वहीं दबी सोई 'नार' जाग कर बरबएस उन्हें वहाँ खींच ले जाती है। फिर वे कुछ दिनों के लिए वहाँ बिताए वक्त की यादों के साए में लौट जाते हैं।
हमारा छोटा सा हुजूम आहिस्ता - आहिस्ता बढ़ता गया और वे अपने बचपन में खोए जज़्बाती हुए जाते -
"यहाँ जो भीतर का मैदान है, कभी हमारा फ़ुटबाल का ग्राउंड हुआ करता था। एक बार देशपांडे जी आए और हमें खेलता देखा तो बुला कर पूछा - यहां क्यों खेलते हो ? हमने बताया बाक़ी के मैदान बहुत दूर हैं, यह घर के नज़दीक है। सुन कर पीठ ठोंक कर बोले अच्छा जाओ खेलो। खेलते खेलते जमाल साहब एक दिन फ़ुटबाल टीम के कप्तान हो गए ."
हम टर्किश हम्माम की बारीकियां और खूबियां समझते रहे और जमाल साहब अपने बचपन में मगन -
"यहां हम छुपम - छुपाई खेलते , पानी वाले सूराख में घुस कर कभी इधर से और कभी उधार से निकल कर गुम हो जाते। हम इसे भूल भुलइया कहा करते। "
आगे बढे , सामने से आई पैड पर तस्वीर उतारते नौजवान से तोअरोफ़ कराया - "छोटा भाई है - माज़िद। " उसने भी मुस्कुराते हुए गर्मजोशी से आगे बढ़ कर हाथ मिलाया। जमाल साहब बताते रहे -
"ये जो छतरी सी बनी है ना, यहां लोग वर्ज़िश और मालिश किया करते थे , अब कम दीखते हैं वैसे लोग। और यहां से देखिए, पूरा जौनपुर शहर दीखता है यहां से, सामने गोमती पर तना मेहराबदार शाही पुल अकबर का बनवाया है।
जिस दीवार की मरम्मत अभी की जा रही है। एक बार यहां काम कराने के दरमियान दीवार में से गाहड़वालों के वक्त की कुछ मूर्तियां निकलीं तो स्टोर में रखवा दीं, अभी आप को दिखलाते हैं।
सिन्हा साहब के फादर यहां सी. ए. की पोस्ट पर थे तो हम उनके साथ बचपन में यहीं खेला करते। हम तो यहां के एक एक कोने से वाकिफ हैं।
आप देख रहे हैं वो सामने जो ऊंची बुर्जी है वहाँ बैठ कर पढ़ने आया करता था। चलिए आप को दिखाता हूँ यहां घंटो बिताता। बड़ी खुशगवार हवा बहती थी यहां जैसे आज बह रही है।"
बोलते बोलते जमाल साहब की आँखों में उनका बचपन जुग्ग जुग्ग चमक उठता।
किले के ऊंचे टीले और उसके बाहर चारों और बनी खंदक का ज़िक्र करते करते उन्हें अपने बुज़ुर्ग याद आए जिनका घोड़ा कभी उन्हें लिए दिए उसमें फांद गया था जिसके चलते उनका पैर टूटा तो आगे सीधा नहीं हुआ।
लंब-ए-सड़क अपना मकान, उससे लगी कद्दावर भतीजे की घड़ी की और उससे सटी बन्दूक की दूकान दिखाई, बड़े भाई से मिलवाया, सड़क पर सीवर की खुदाई के दौरान मिली चमक दार पॉटरी (एन. बी. पी.) और उस बिना पर यहां की बसावट के हज़ारों बरस से वहीं बसे होने का दवा किया। इस जानकारी ने हमें उकसाया और जानने देखने को। उनसे कहा कि क्या कहीं हमें भी दिखा सकते हैं जहां यह पॉटरी मिलती हो।
वो और जोश में भर कर अपने साथ बगल की गली में लिवा ले गए। अपने दादा का बनवाया लंबा चौड़ा मकान दिखाया। बोले ये है मेरा 'ददिहाल'और आगे यहां रहे थे हमारे मामू, ये रहा हमारा ननिहाल। अगल बगल के घरों पर मुहर्रम के काले झंडे लहराते दीखते और मातम के बोल सुन पड़ते। ननिहाल के पास ही वे हमें अपने पुश्तैनी कब्रिस्तान में लिवा ले गए। बुज़ुर्गों की कब्रें दिखलाईं जिनके आस-पास पुराने ठीकरे देखते ही हमारे दस्ते ने फ़टाफ़ट एन बी पी और ग्रे वेयर के टुकड़े और एक टेराकोटा हेड बीन लिया। 'हाथ कंगन को आरसी क्या ? पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या ?' सब ने जमाल साहब का दावा मान लिया।
अब सब इस जुगाड़ में लग गए कि अगर कहीं खंती लग सके तो यहां की तवारीख का सही सही पता लगे। जमाल साहब फिर आगे आए -
"अरे इसमें क्या है। चाहें तो यहीं कब्रिस्तान के कोने में लग सकती है, नहीं तो दादा के मकान के पास वाला खाली प्लाट तो है ही। "
अगला ठिकाना अटाला मस्जिद देखा। वहाँ भी जमाल साहब के फुटबाली ज़माने के साथियों ने तहे दिल से हाथो हाथ लिया। जमाल साहब ने इस बात पर बड़ा रंज़ जताया:
" है तो यह मस्जिद बहुत ज़माने से अपने प्रोटेक्शन में लेकिन कोई खैर खबर नहीं ली गई। अनजाने में देख रेख करने वालों ने जगह जगह सीमेंट से मरम्मत प्लास्टर कर बदनुमा कर दिया।"
फिर अंदर के खुले हिस्से के एक और इशारा कर के तस्दीक कराई -
"इसी जगह हम सब तख्ती पर इमला लिखा करते थे। यहीं हमने शुरुआती तालीम पाई। इसी मदरसा-ए-दीनो दुनिया में।"
फिर ले गए मस्जिद की ओर। दूर से देख रहे मौलवी ने आवाज़ लागई - "जूते वहीं उतार दीजिए।"
हमें देर लगी तो इत्मीनान दिलाया "बेफिक्र रहिए, कोई ले नहीं जाएगा। "
मस्जिद के अंदर की नफीश नक्काशी दिखा कर जमाल साहब ने बताया ऎसी लाज़वाब कारीगरी देखने को नहीं मिलती।
अटाला मस्जिद से चार अंगुली मस्जिद की ओर निकले। जमाल साहब ने कहा - "मुहर्रम तक रुकिए तो देखिए यहां की रौनक। ज़ंजीरों और चाकू छुरियों से ऐसा मातम होता है कि समूची सडक खून से रंग जाती है, और देखने वालों की इतनी तादाद कि तिल रखने को जगह ना रहे। "
गलियों में बड़ी गाड़ियों के लिए मुश्किल से जगह बनाते लंबा रुट लिया। रास्ते में बिक रहे गन्ने देख कार्तिक एकादशी और इक्ष्वाकु राजवंश, कुदरती गन्ने की चर्चा के बाद जौनपुरी मूली और मशहूर इमरतियों की बात हुई। कर्बले के नज़दीक से निकले तो जमाल साहब ने अपने दादा और अब्बू को हसरत से याद किया, दादा की ज़मींदारी और नेकदिली और ज़मींदारी ख़त्म होते ही लगान ना वसूलने के ईमान की बात बताई, मज़लिश में उनके बोलने का अंदाज़ बताया, उस जगह पर हज़ारों ताजियों दफनाने का ज़िक्र किया।
जमाल साहब अपनी रौ में कुछ और बोलते कि तभी ओटा जी ने शरारत से टोक दिया -
"आप भी तो हज़ कर आए हैं, पहले के सब पाप कट गए होंगे। अब आप भी मज़लिश में बोल सकते हैं हाजी साहब। "
जमाल साहब हौले से मुस्कुरा कर बोले - "अमां यार क्या बात करते है आप भी। भला मैं कहाँ ऐसा कर सकता हूँ। सरकारी नौकरी में सच बोलने का दावा भला कौन कर सकता है ? और नहीं तो इतना झूठ तो बोलना ही पड़ता है, बाज बाज, बहुत फोन आएं तो कह दो नहीं हैं। " यह सुन कर सबने उनकी साफ़दिली की तारीफ़ की।
चार अंगुल मस्जिद की एक मेहराब मशहूर है अपनी इस खासियत के लिए कि छोटा बड़ा जो नापे उसकी माप चआर अंगुल ही निकलेगी। जमाल साहब के ज़ेहन में यहां की यह शोहरत बचपन से कब्ज़ा जमाए रही लेकिन हमें दिखाते वक्त ढूंढने के बाद भी उसकी शिनाख्त नहीं करा सके।
फिर से ताजिए पर लौटे। असल में हिन्द से बहुत दूर ईराक में कर्बला जा कर मातम मनाना सबके बूते की बात तो है नहीं, शायद इसी लिए हिन्द के शिया लोगों ने यहां के तकरीबन हर ख़ास शहर - कसबे में अपने अपने कर्बले बना लिए। हर बरस मुहर्रम के मौके पर कर्बला की ज़ंग की याद में, जिसमें इमाम हुसैन साहब क़त्ल किए गए थे, छोटे बड़े ताज़िए (मकबरे) उठा कर जुलूस निकाल कर ज़ंग के वाकयों को फिर से जीते हुए अभिनीत करने और आखीर में इन ताजियों को कर्बला में दफनाने लगे।
तभी किसी साथी ने कह दिया कि हाँ हाँ उनके फलां दोस्त भी ऐसा ही बता रहे थे और जमाल साहब सुनते ही तुनक गए - "अमा यार उसे क्या आता है ? एक बार पूंछ दिया था - ताजिए में दो छोटी छोटी हरे लाल तुरबत क्यों बनाए जाते हैं ? बस मुंह खोल दिए, इतना भी नहीं बता पाए कि हसन - हुसैन की याद में बनते हैं। छोड़िए उनकी बातें ठीक से नमाज़ तक तो पढ़ नहीं पाते। ' हाफ ब्वाएल्ड' समझिए उनको ' हाफ ब्वाएल्ड'।"
पहले तो समझ नहीं आया क्या कह गए। फिर समझ में आया तो देर तक हँसता रहा - 'हाफ ब्वाएल्ड', ,मतलब अधपका अण्डा, मतलब अधकचरा।
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मौके पर पहुंचे तो जौनपुर के किले के दरवाज़े पर अपने महकमे के और लोगों के साथ काले मुहर्रमी लिबास में जमाल साहब को गुलदस्ता थामे अगवानी में पाया तो याद आया वे भी दिल्ली से मुहर्रम मनाने घर आए हैं। मिलते ही उनकी गर्मजोशी ने दिल जीत लिया। बढ़-बढ़ कर आगे-आगे किले के बारे में बताने लगे।
जमाल साहब का घर किले के ठीक सामने है। उनकी 'नार' भी वहीं कहीं गड़ी होगी। पढ़ लिख कर बड़े हो कर रोज़ी - रोटी के लिए बाहर चले गए लेकिन हर साल मोहर्रम का वक्त आने पर वहीं दबी सोई 'नार' जाग कर बरबएस उन्हें वहाँ खींच ले जाती है। फिर वे कुछ दिनों के लिए वहाँ बिताए वक्त की यादों के साए में लौट जाते हैं।
हमारा छोटा सा हुजूम आहिस्ता - आहिस्ता बढ़ता गया और वे अपने बचपन में खोए जज़्बाती हुए जाते -
"यहाँ जो भीतर का मैदान है, कभी हमारा फ़ुटबाल का ग्राउंड हुआ करता था। एक बार देशपांडे जी आए और हमें खेलता देखा तो बुला कर पूछा - यहां क्यों खेलते हो ? हमने बताया बाक़ी के मैदान बहुत दूर हैं, यह घर के नज़दीक है। सुन कर पीठ ठोंक कर बोले अच्छा जाओ खेलो। खेलते खेलते जमाल साहब एक दिन फ़ुटबाल टीम के कप्तान हो गए ."
हम टर्किश हम्माम की बारीकियां और खूबियां समझते रहे और जमाल साहब अपने बचपन में मगन -
"यहां हम छुपम - छुपाई खेलते , पानी वाले सूराख में घुस कर कभी इधर से और कभी उधार से निकल कर गुम हो जाते। हम इसे भूल भुलइया कहा करते। "
आगे बढे , सामने से आई पैड पर तस्वीर उतारते नौजवान से तोअरोफ़ कराया - "छोटा भाई है - माज़िद। " उसने भी मुस्कुराते हुए गर्मजोशी से आगे बढ़ कर हाथ मिलाया। जमाल साहब बताते रहे -
"ये जो छतरी सी बनी है ना, यहां लोग वर्ज़िश और मालिश किया करते थे , अब कम दीखते हैं वैसे लोग। और यहां से देखिए, पूरा जौनपुर शहर दीखता है यहां से, सामने गोमती पर तना मेहराबदार शाही पुल अकबर का बनवाया है।
जिस दीवार की मरम्मत अभी की जा रही है। एक बार यहां काम कराने के दरमियान दीवार में से गाहड़वालों के वक्त की कुछ मूर्तियां निकलीं तो स्टोर में रखवा दीं, अभी आप को दिखलाते हैं।
सिन्हा साहब के फादर यहां सी. ए. की पोस्ट पर थे तो हम उनके साथ बचपन में यहीं खेला करते। हम तो यहां के एक एक कोने से वाकिफ हैं।
आप देख रहे हैं वो सामने जो ऊंची बुर्जी है वहाँ बैठ कर पढ़ने आया करता था। चलिए आप को दिखाता हूँ यहां घंटो बिताता। बड़ी खुशगवार हवा बहती थी यहां जैसे आज बह रही है।"
बोलते बोलते जमाल साहब की आँखों में उनका बचपन जुग्ग जुग्ग चमक उठता।
किले के ऊंचे टीले और उसके बाहर चारों और बनी खंदक का ज़िक्र करते करते उन्हें अपने बुज़ुर्ग याद आए जिनका घोड़ा कभी उन्हें लिए दिए उसमें फांद गया था जिसके चलते उनका पैर टूटा तो आगे सीधा नहीं हुआ।
लंब-ए-सड़क अपना मकान, उससे लगी कद्दावर भतीजे की घड़ी की और उससे सटी बन्दूक की दूकान दिखाई, बड़े भाई से मिलवाया, सड़क पर सीवर की खुदाई के दौरान मिली चमक दार पॉटरी (एन. बी. पी.) और उस बिना पर यहां की बसावट के हज़ारों बरस से वहीं बसे होने का दवा किया। इस जानकारी ने हमें उकसाया और जानने देखने को। उनसे कहा कि क्या कहीं हमें भी दिखा सकते हैं जहां यह पॉटरी मिलती हो।
वो और जोश में भर कर अपने साथ बगल की गली में लिवा ले गए। अपने दादा का बनवाया लंबा चौड़ा मकान दिखाया। बोले ये है मेरा 'ददिहाल'और आगे यहां रहे थे हमारे मामू, ये रहा हमारा ननिहाल। अगल बगल के घरों पर मुहर्रम के काले झंडे लहराते दीखते और मातम के बोल सुन पड़ते। ननिहाल के पास ही वे हमें अपने पुश्तैनी कब्रिस्तान में लिवा ले गए। बुज़ुर्गों की कब्रें दिखलाईं जिनके आस-पास पुराने ठीकरे देखते ही हमारे दस्ते ने फ़टाफ़ट एन बी पी और ग्रे वेयर के टुकड़े और एक टेराकोटा हेड बीन लिया। 'हाथ कंगन को आरसी क्या ? पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या ?' सब ने जमाल साहब का दावा मान लिया।
अब सब इस जुगाड़ में लग गए कि अगर कहीं खंती लग सके तो यहां की तवारीख का सही सही पता लगे। जमाल साहब फिर आगे आए -
"अरे इसमें क्या है। चाहें तो यहीं कब्रिस्तान के कोने में लग सकती है, नहीं तो दादा के मकान के पास वाला खाली प्लाट तो है ही। "
अगला ठिकाना अटाला मस्जिद देखा। वहाँ भी जमाल साहब के फुटबाली ज़माने के साथियों ने तहे दिल से हाथो हाथ लिया। जमाल साहब ने इस बात पर बड़ा रंज़ जताया:
" है तो यह मस्जिद बहुत ज़माने से अपने प्रोटेक्शन में लेकिन कोई खैर खबर नहीं ली गई। अनजाने में देख रेख करने वालों ने जगह जगह सीमेंट से मरम्मत प्लास्टर कर बदनुमा कर दिया।"
फिर अंदर के खुले हिस्से के एक और इशारा कर के तस्दीक कराई -
"इसी जगह हम सब तख्ती पर इमला लिखा करते थे। यहीं हमने शुरुआती तालीम पाई। इसी मदरसा-ए-दीनो दुनिया में।"
फिर ले गए मस्जिद की ओर। दूर से देख रहे मौलवी ने आवाज़ लागई - "जूते वहीं उतार दीजिए।"
हमें देर लगी तो इत्मीनान दिलाया "बेफिक्र रहिए, कोई ले नहीं जाएगा। "
मस्जिद के अंदर की नफीश नक्काशी दिखा कर जमाल साहब ने बताया ऎसी लाज़वाब कारीगरी देखने को नहीं मिलती।
अटाला मस्जिद से चार अंगुली मस्जिद की ओर निकले। जमाल साहब ने कहा - "मुहर्रम तक रुकिए तो देखिए यहां की रौनक। ज़ंजीरों और चाकू छुरियों से ऐसा मातम होता है कि समूची सडक खून से रंग जाती है, और देखने वालों की इतनी तादाद कि तिल रखने को जगह ना रहे। "
गलियों में बड़ी गाड़ियों के लिए मुश्किल से जगह बनाते लंबा रुट लिया। रास्ते में बिक रहे गन्ने देख कार्तिक एकादशी और इक्ष्वाकु राजवंश, कुदरती गन्ने की चर्चा के बाद जौनपुरी मूली और मशहूर इमरतियों की बात हुई। कर्बले के नज़दीक से निकले तो जमाल साहब ने अपने दादा और अब्बू को हसरत से याद किया, दादा की ज़मींदारी और नेकदिली और ज़मींदारी ख़त्म होते ही लगान ना वसूलने के ईमान की बात बताई, मज़लिश में उनके बोलने का अंदाज़ बताया, उस जगह पर हज़ारों ताजियों दफनाने का ज़िक्र किया।
जमाल साहब अपनी रौ में कुछ और बोलते कि तभी ओटा जी ने शरारत से टोक दिया -
"आप भी तो हज़ कर आए हैं, पहले के सब पाप कट गए होंगे। अब आप भी मज़लिश में बोल सकते हैं हाजी साहब। "
जमाल साहब हौले से मुस्कुरा कर बोले - "अमां यार क्या बात करते है आप भी। भला मैं कहाँ ऐसा कर सकता हूँ। सरकारी नौकरी में सच बोलने का दावा भला कौन कर सकता है ? और नहीं तो इतना झूठ तो बोलना ही पड़ता है, बाज बाज, बहुत फोन आएं तो कह दो नहीं हैं। " यह सुन कर सबने उनकी साफ़दिली की तारीफ़ की।
चार अंगुल मस्जिद की एक मेहराब मशहूर है अपनी इस खासियत के लिए कि छोटा बड़ा जो नापे उसकी माप चआर अंगुल ही निकलेगी। जमाल साहब के ज़ेहन में यहां की यह शोहरत बचपन से कब्ज़ा जमाए रही लेकिन हमें दिखाते वक्त ढूंढने के बाद भी उसकी शिनाख्त नहीं करा सके।
फिर से ताजिए पर लौटे। असल में हिन्द से बहुत दूर ईराक में कर्बला जा कर मातम मनाना सबके बूते की बात तो है नहीं, शायद इसी लिए हिन्द के शिया लोगों ने यहां के तकरीबन हर ख़ास शहर - कसबे में अपने अपने कर्बले बना लिए। हर बरस मुहर्रम के मौके पर कर्बला की ज़ंग की याद में, जिसमें इमाम हुसैन साहब क़त्ल किए गए थे, छोटे बड़े ताज़िए (मकबरे) उठा कर जुलूस निकाल कर ज़ंग के वाकयों को फिर से जीते हुए अभिनीत करने और आखीर में इन ताजियों को कर्बला में दफनाने लगे।
तभी किसी साथी ने कह दिया कि हाँ हाँ उनके फलां दोस्त भी ऐसा ही बता रहे थे और जमाल साहब सुनते ही तुनक गए - "अमा यार उसे क्या आता है ? एक बार पूंछ दिया था - ताजिए में दो छोटी छोटी हरे लाल तुरबत क्यों बनाए जाते हैं ? बस मुंह खोल दिए, इतना भी नहीं बता पाए कि हसन - हुसैन की याद में बनते हैं। छोड़िए उनकी बातें ठीक से नमाज़ तक तो पढ़ नहीं पाते। ' हाफ ब्वाएल्ड' समझिए उनको ' हाफ ब्वाएल्ड'।"
पहले तो समझ नहीं आया क्या कह गए। फिर समझ में आया तो देर तक हँसता रहा - 'हाफ ब्वाएल्ड', ,मतलब अधपका अण्डा, मतलब अधकचरा।
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